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________________ समाधिमग्ण और अन्य धार्मिक परम्पगाएँ को दण्ड मिलता है। काण्ट ने आत्महत्या के प्रति विरोध प्रकट करते हुए कहा है कि आत्महत्या करनेवाला व्यक्ति मानवता का ही अनादर करता है।.८ शापेनहावर ने (Schopenhaucr) आत्महत्या को पागलपन की सनक कहा है। आत्महत्या पर अपना मत प्रकट करते हुए वह लिखता है कि आत्महत्या करनेवाला व्यक्ति मानवता का अपमान करता है तथा अपने जीने की इच्छा को खत्म करता है या समाप्त कर देता है। क्योंकि अक्सर ऐसा देखा गया है कि आत्महत्या करनेवाले व्यक्ति के अन्तर्मन में और अधिक समय तक जाने की ललक रहती है। यह दूसरी बात है कि वह इस भावना से वशीभूत होने के बाद भी अपना प्राणान्त कर लेता है। इस तरह हम यह देखते हैं कि ईसाई परम्परा में ऐच्छिक देहत्याग का विरोध व्यापक पैमाने पर हुआ है। इन विरोधों के बाद भी कुछ ऐसी विशेष परिस्थितियाँ हैं जिनमें ऐच्छिक देहत्याग की सहमति ईसाई परम्परा में देखने को मिलती है। सहमति ही नहीं, बल्कि इसके पक्ष में प्रबल समर्थन व प्रशंसा के भाव भी विद्यमान हैं। इस विषय पर आगे विस्तारपूर्वक चर्चा की जायेगी। ईसाई परम्परा के अनुसार निम्नलिखित परिस्थितियों में व्यक्ति मृत्युवरण कर सकता है- अपने धर्म की रक्षा के लिए, स्वधर्म के त्याग की परिस्थितियाँ उपस्थित हो जाने पर, पवित्रता अथवा नैतिक मूल्यों की रक्षा करने के लिए। इन परिस्थितियों में व्यक्ति द्वारा किये गये मृत्युवरण की प्रशंसा सर्वत्र की जाती है तथा इसकी सहमति ईसाई परम्परा के साथ-साथ अन्य परम्पराओं में भी दी गयी है। इन परिस्थितियों में लिया गया मृत्युवरण जैनधर्म में वर्णित समाधिमरण के समान ही प्रशंसनीय एवं स्वीकार करने योग्य है। इसके विरुद्ध किसी तरह का आक्षेप नहीं लगाया जा सकता है। डायगलायर्ट (Dioglacrt)१११ के अनुसार निम्नलिखित परिस्थितियों में व्यक्ति मृत्युवरण कर सकता है- अपने साथियों व अपने देश की रक्षा, असह्य रोग हो जाने तथा इसी तरह की अन्य परिस्थितियाँ उपस्थित हो जाने पर व्यक्ति इच्छापूर्वक मृत्यु का वरण कर सकता है। इन परिस्थितियों में उसके द्वारा लिया गया मृत्युवरण समाज के लिए एक आदर्श उपस्थित करता है। इससे उसके उच्च भाव का बोध होता है तथा उसे समाज में आदरणीय स्थान प्राप्त होता है। उसे आदरणीय स्थान प्राप्त होना भी चाहिए, क्योंकि निःसन्देह वह आदर पाने योग्य कार्य करता है। अरस्तु और प्लेटो ने एक तरफ आत्महत्या की तीव्र भर्त्सना की है तथा इसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002112
Book TitleSamadhimaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajjan Kumar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Epistemology
File Size10 MB
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