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समाधिमरण और अन्य धार्मिक परम्पराएँ
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रखा ही था कि विवेकपूर्ण विचार उत्पन्न हुआ और चित्त मुक्त हुआ। ५ सप्पदस द्वारा किया गया आत्ममरण का यह निर्णय समाधिमरण से तुलनीय नहीं है, क्योंकि सर्वप्रथम उसने आत्ममरण का निश्चय अपनी भावनाओं ( काम भावना) से मुक्त होने के लिए किया था तथा बाद में आत्ममरण के लिए अस्त्र का प्रयोग किया। यह दूसरी बात है कि उसका विवेक जाग उठा और उसने आत्ममरण नहीं किया। काम एक तीव्र संवेग है और यदि सप्पदस ने मात्र संवेग प्राप्त करने के लिए आत्ममरण का निर्णय किया था तो यह समाधिमरण नहीं कहला सकता, लेकिन अगर धर्मरक्षा के लिए उस संवेग से मुक्ति का प्रयत्न किया था तो समाधिमरण से तुलनीय है।
मेघराज कुष्ठ रोग से पीड़ित था। इस कारण वह बौद्ध विहार से बाहर रहता था। बाद में उसने बुद्ध से इच्छितमरण की आज्ञा माँगी ? बुद्ध ने मेघराज को इच्छितमरण करने की आज्ञा दी और उसकी प्रशंसा भी की।६ मेघराज का यह आत्ममरण समाधिमरण से तुलनीय है, क्योंकि कुष्ठ रोग उस समय एक असाध्य रोग था, जिससे देह के अंग-प्रत्यंग गल जाते थे। फलतः व्यक्ति अपने कार्यों का सम्पादन करने में असमर्थ हो जाता था। अतः सम्भव है मेघराज का भी अंग-प्रत्यंग गल गया हो और वह किसी कार्य को करने में समर्थ न रहा हो। इसी कारण उसने इच्छितमरण का निश्चय किया हो और भगवान् बुद्ध उससे सहमत भी हो गए हों।
उत्तर सारिपुत्र के शिष्य थे। सारिपुत्र की अस्वस्थता के कारण उनके उपचार हेतु वैद्य बुलाने के लिए उत्तर शहर की ओर जाने लगे। रास्ते में किसी सरोवर के निकट वे अपना कमण्डल रखकर स्नान करने लगे। इसी बीच किसी चोर ने उनके कमण्डल में चोरी का सामान रख दिया। राज-रक्षकों ने उन्हें पकड़ लिया। राज्य की ओर से उन्हें मृत्युदण्ड मिला। फाँसी स्थल पर जाने के समय उनका मन खिन्न था। लेकिन फाँसी के फदे पर झूलने के वक्त उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई और उनकी खिन्नता दूर हो गयी। उन्होंने सहर्ष भाव से फांसी के फन्दे को अपना लिया तथा अपने मन में आए भावों को इस तरह से प्रकट किया - "थोड़ी देर पहले मैं मरने से डर रहा था। लेकिन मैंने इसके दुष्परिणाम को जान लिया है, अतः संसार की अब मुझे कामना नहीं रही । ८७
पहली अवस्था में उत्तर को यह जानकर दुःख हो रहा था कि मैंने पाप कार्य नहीं किया फिर भी मुझे दण्ड मिल रहा है, मैं झूठे ही मृत्यु का भागी हो रहा हूँ। लेकिन दूसरी अवस्था में ज्ञान हो जाने पर उन्हें संसार के मिथ्यात्व का बोध हो गया तथा उनके लिए जीवन और मृत्यु दोनों ही परिस्थितियाँ समान हो गयीं अर्थात् वे समभाव की स्थिति में आ गए। इस स्थिति में उन्होंने जो खुशी-खुशी बिना किसी विषम भाव के मृत्यु का वरण
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