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समाधिमरण
प्राणान्त कर लिया। अगर वास्तव में यही बात सत्य रही होगी तो वक्कलि द्वारा किया गया यह आत्ममरण समाधिमरण से भिन्न माना जायेगा।
संयुत्तनिकाय में गोधिका नाम की एक श्राविका के आत्ममरण का उल्लेख मिलता है। गोधिका बौद्ध श्राविका थी। वह किसी असाध्य रोग से पीड़ित थी। उसने अपने रोग के निदान का प्रयत्न किया, लेकिन उसे सफलता नहीं मिली। अन्ततः उसने आत्ममरण किया। स्वयं भगवान् बुद्ध ने गोधिका के आत्ममरण की प्रशंसा की तथा यह कहा कि उसने निर्वाण पा लिया।८२ गोधिका का यह आत्ममरण समाधिमरण से अवश्य तुलनीय है, क्योंकि बीमारी की स्थिति में उसने उसके निदान का प्रयास किया तथा सफल नहीं होने पर ही उसने आत्ममरण किया हो। हो सकता है ऐसा सम्भव हो कि उसने आत्ममरण बीमारी के कष्ट से नहीं बल्कि बीमारी से छुटकारा पाने के लिए किया हो, क्योंकि उसने ऐसा किया था तभी तो भगवान् बुद्ध ने उसके आत्ममरण की प्रशंसा की तथा यह भी कहा कि उसने निर्वाण प्राप्त कर लिया है।
थेरगाथा में प्रस्तुत नहातक मुनि के आत्ममरण का प्रसंग भी विवेचित करने योग्य है। नहातक मुनि ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हुए थे। बुद्ध से प्रव्रज्या ग्रहण करके अर्हत् पद को प्राप्त किये थे। वे जंगल में अपनी साधना में लीन रहते थे। कुछ समय पश्चात् वे वात रोग से पीड़ित हो गए। इससे उनकी साधना में व्यवधान उत्पन्न होने लगा। एक बार बुद्ध नहातक मुनि से मिले और पूछा कि इस बीमारी के कारण तुम्हारे कार्य-कलापों में व्यवधान हो रहा होगा? तुम किस तरह इस जंगल में अपने धर्म की रक्षा करोगे? इस पर मुनि ने कहा “शरीर में विपुल प्रीति सुख़ फैलाकर कठिनाइयों को वश में करके जंगल में विहार करूँगा। पाँव, इन्द्रियाँ और पाँच बलों का अभ्यास करके सूक्ष्म ध्यान से युक्त होकर आस्रव रहित होकर जंगल में विचरण करूँगा। मन को सभी विचारों से मुक्त कर लूँगा। उसके बाद मुनि-मृत्यु ग्रहण करूँगा तथा पुनर्जन्म के भवचक्र से मुक्त हो जाऊँगा।८३ नहातक मुनि द्वारा आत्ममरण का यह निश्चय समाधिमरण से तुलनीय है, क्योंकि भगवती में इसी तरह का विचार एकदंगमुनि द्वारा प्रस्तुत किया गया है।८४ ।।
सप्पदस राजा शुद्धोदन का राज पुरोहित था। उसके मन में काम-वितर्क उत्पन्न हुआ करता था। निरन्तर प्रयासों के फलस्वरूप भी उसके मन को शान्ति नहीं मिली थी। निराश होकर एक दिन उसने आत्ममरण का निश्चय किया। उसी समय उसका मन समाधिस्थ हो गया। तदुपरान्त उसने अर्हत् पद प्राप्त किया। अर्हत् पद-प्राप्ति के पश्चात् सप्पदस ने अपने अनुभव को इस प्रकार व्यक्त किया- आत्ममरण के लिए मैं अस्त्र के रूप में उस्तरा लेकर पलंग पर बैठ गया। अपनी धमनी काटने के लिए गले पर उस्तरा
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