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________________ समाधिमरण और अन्य धार्मिक परम्पराएँ जीवन और मृत्यु को एक श्रृंखला की दो कड़ी समझनी चाहिए। मृत्यु का समय आने पर उससे भयभीत नहीं होना चाहिए और उससे डरकर भागने का प्रयास भी नहीं करना चाहिए, वरन् एक सम्मानीय आगन्तुक की तरह उसका स्वागत करना चाहिए। क्योंकि अगर हम मृत्यु से डर जाएगें तो वह हमें डरायेगी और अगर मृत्यु से डरकर नहीं भागेंगे तो वह हमसे डरेगी अर्थात् व्यक्ति को मृत्युरूपी भय से मुक्त रहना चाहिए। मृत्यु से न भागने का तात्पर्य यहाँ इस भाव से हैं कि जिस तरह जीवन को सुखपूर्वक जीया जाता है, उसी तरह मृत्यु को भी एक आवश्यक कार्य समझकर अपनाना चाहिए, अर्थात् जिस तरह हम जीवन जीते हैं उसी तरह मृत्यु को भी स्वाभाविक रूप से समझें और उसे स्वीकार करने को तैयार रहें। अतः समाधिमरण के स्वरूप में हमारे समक्ष देहत्याग की अवधारणा उपस्थित है । इस देहत्याग का समर्थन नैतिक दृष्टि से तथा धार्मिक दृष्टि से उचित माना गया है। अतः नैतिक दृष्टि से समर्थित इस देहत्याग को निम्न किसी भी अवसर अथवा परिस्थिति में स्वीकार करना उचित होगा? जैसे 1 १. बाढ़, दुर्भिक्ष, अकाल, सूखा आदि विषम परिस्थितियों में जब खाद्य पदार्थों की आपूर्ति सुगमता से सम्भव न हो और उसके अभाव में जीवन जाने का भय हो तथा अपने धर्म से पतित हो जाने की संभावना हो, जैसे हत्या करके, किसी का धन - अन्न चुराकर जीवन बचाना पड़े शरीर बेचकर, किसी की आदि । २. जरा अर्थात् अत्यधिक वृद्धावस्था तपादि के अभ्यास के कारण सभी इन्द्रियाँ बल-क्षीण हो गयी हों, आवश्यक कार्यों के सम्पादन के लिए दूसरों पर निर्भर रहना पड़ता हो, शरीर जब भारयुक्त हो गया हो इत्यादि । ३. असाध्य रोग हो जाने पर अर्थात् किसी प्रयत्न से भी जिसकी ठीक होने की सम्भावना नहीं है, उपचार करनेवाले तथा करानेवाले भी थक गए हों, अत्यधिक पीड़ा के कारण संज्ञाशून्य अवस्था में पड़े हों तथा जीवन रक्षा का कोई भी प्रयत्न संभव नहीं रह गया हो आदि । ४. अनिवार्य प्राणघातक परिस्थितियों में फँस जाने पर जहाँ से निकल पाना संभव नहीं हो, जैसे- दुष्ट, पतित, भ्रष्ट, हिंसक पशु, मानव तथा घनघोर जंगल, रेगिस्तान, समुद्र आदि स्थानों में भटक जाने पर । इनके अतिरिक्त कुछ और भी विषम परिस्थितियाँ उत्पन्न हो सकती हैं, जिनमें धर्म Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002112
Book TitleSamadhimaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajjan Kumar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Epistemology
File Size10 MB
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