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जैनधर्म में समाधिमरण की परम्परा
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आवश्यक होगा कि मात्र शिलालेखों की संख्या के आधार पर परिकल्पना ठीक नहीं , क्योंकि शिलालेखों के आधार पर प्रतिशत या इसी तरह की गणना शुद्ध नहीं होती है। उनकी सहायता से मात्र उस समय की प्रथा पर प्रकाश अवश्य डाला जा सकता है। इस आधार पर हम यही कह सकते हैं कि समाधिमरण की परम्परा प्राचीनकाल की तरह मध्यकाल में भी प्रचलित थी।
आधुनिक काल
___आधुनिक समय में जहाँ अन्य धर्मों में स्वेच्छा से देहत्याग अप्रचलित है, वहीं जैनधर्म में समाधिमरण जैसी परम्परा अभी भी वर्तमान है। समय-समय पर जैन परम्परा के मुनि और गृहस्थ समाधिमरण करते रहते हैं। अत: आधुनिक काल में भी जैनधर्म में समाधिमरण की परम्परा प्रचलित है और इसके बहुतायत उदाहरण मिलते हैं। आधुनिक काल में जिन महापुरुषों ने समाधिमरण किया उनकी चर्चा की जा रही है।
जोधपुर में सन् १९४५ ई० को श्री शम्भूनाथ राम जी म० ने समाधिमरण किया था। अपने समाधिमरण व्रत के क्रम में उन्होंने सात दिनों का उपवास किया, तत्पश्चात् उनकी मृत्यु हो गयी।१५४
श्री बनवारीलाल जी म० ने सन् १९४९ ई० में १० दिन का संथारा लेकर समाधिमरणपूर्वक देहत्याग किया था।१५५
जोधपुर में ही माननीय श्री जीन्द जी के शिष्य श्री कृपाराम जी ने १९ दिन तक संथारा व्रत लेकर समाधिमरणपूर्वक अपना देहत्याग किया था। इनकी दीक्षा संवत् १९४९ ई० में हुई थी।५६
श्री मोहर सिंह जी ने दिल्ली में सन् १९५३ ई० में ४ दिनों के संथारे के बाद समाधिमरणपूर्वक अपना देहत्याग किया था।१५७ आचार्य श्री शान्तिसागर जी म० का समाधिमरण १८ सितम्बर १९५५ ई० को हुआ। समाधिमरण के पूर्व आचार्य श्री ने ३६ दिनों तक अनशन व्रत किया। इन ३६ दिनों में आपने सिर्फ चार बार जल ग्रहण किया था। सन् १९१९ ई० में आप दीक्षित हुए थे। दीक्षित होने के बाद आपने जीवनपर्यन्त नमक, शक्कर, घी तथा हरे फल का त्याग कर दिया था। जीवन के अन्तिम समय में आपने ३६ दिनों तक अन्न का भी त्याग कर दिया था।१५८
श्रीमती सीताबाई नाहर ने कुंदेवाड़ी में ५२ दिनों का उपवास करके समाधिमरण विधि से अपने देह का त्याग किया था। इनका समाधिमरण ४ मई १९७८ ई० में ९८
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