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________________ १६२ समाधिमरण किया गया है।१७३ (i) जीविताशंसा- असार देह की स्थिति में आद चान होकर जीने की इच्छा करना। (ii) मरणाशंसा-शारीरिक कष्ट के भय से शीघ्र मरण की कामना। (iii) सहृदयानुराग-पूर्व के मित्रों के साथ हुई आनन्ददायिनी क्रीड़ाओं को स्मरण करना और उसे भोगने की आकांक्षा रखना। - (iv) सुखानुबन्ध-पूर्व में किए गए भोगोपभोग एवं स्त्री संसर्ग सुखादि की कल्पना करना। (v) निदान- भविष्य काल के लिए भोगों के वांछित रूप की कामना करना। धर्मामृत (सागार) के अनुसार समाधिमरण करनेवाले व्यक्ति को सदैव इन पाँच अतिचारों से बचना चाहिए। इसके अनुसार ये अतिचार हैं।७४ (i) जीने की इच्छा- अपना विशेष आदर-सत्कार तथा बहुत से लोगों द्वारा अपनी सेवा-सत्कार करते देखकर, लोगों से अपनी प्रशंसा सुनकर ऐसा मानना कि चारों प्रकार के आहार का त्याग कर देने पर भी मेरा जीवित रहना ही अच्छा है। (ii) मरने की इच्छा- रोग आदि की पीड़ा से तथा इसी प्रकार के अन्य शारीरिक कष्टों से बचने के लिए शीघ्र मृत्यु की कामना करना अथवा आहार त्याग करने पर कोई मेरा आदर नहीं करता, सेवा और प्रशंसा नहीं करता, इस तरह की भावनाओं के वशीभूत होकर शीघ्र मरने की कामना करना। (iii) मित्रानुराग - बाल्यावस्था में साथ-साथ खेलने, दुःखों में दुःखी, सुखों में सुखी होनेवाले मित्रों के अनुराग को समरण करना। (iv) सुखानुबन्ध - मैंने अपने जीवन में कई तरह के उपभोगों का भोग किया है, मैं इस प्रकार सोता था, इस प्रकार क्रीड़ा करता था इत्यादि अनुभूत भोगों को स्मरण करना। (iv) निदान - इस समय में मैं जो कठिन तप कर रहा हूँ आगामी जन्म में इसके कारण मुझे अच्छा कुल मिलेगा, मैं चक्रवर्ती राजा बनूँगा आदि इच्छाओं की कामना करना। उपर्युक्त ग्रन्थों के आधार पर यही निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि समाधिमरण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002112
Book TitleSamadhimaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajjan Kumar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Epistemology
File Size10 MB
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