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समाधिमरण
समाधिमरण के तीन भेद
सामान्यतः स्वाभाविक मृत्यु व्यक्ति के प्राण को उसके शरीर से अलग कर देती है। लेकिन कभी-कभी व्यक्ति अपनी इच्छा से भी देहत्याग करता है। जैनशास्त्रों में इस प्रकार देहत्याग पर प्रकाश डाला गया है। गोम्मटसार के अनुसार देहत्याग तीन तरह किया जाता है। " १. च्युत २. च्यावित ३. त्यक्त
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(१) च्युत - आयु पूर्ण होकर शरीर का स्वतः छूटना च्युत कहलाता है।
(२) च्यावित - विष - भक्षण, रक्त क्षय, धातुक्षय, शस्त्रघात, जलप्रवेश तथा इसी तरह के अन्य बाह्य कारणों से जो शरीरत्याग किया जाता है वह च्यावित कहलाता है।
(३) त्यक्त - रोगादि हो जाने पर तथा मरण का अनिवार्य कारण उपस्थित हो जाने पर विवेकसहित जो शरीरत्याग किया जाता है वह त्यक्त कहलाता है ।
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विवेकसहित देहत्याग का विवरण आचारांग, समवायांग, स्थानांग, उत्तराध्ययन, भगवती-आराधना जैसे प्राचीन ग्रंथों में भी मिलता है। लेकिन भक्तप्रत्याख्यान, इंगिनी और प्रायो (पादो) पगमनमरण को विवेकसहित मरण के अंतर्गत समाहित करने का क्रमबद्ध विवरण प्रथम बार गोम्मटसार में उपलब्ध होता है। १०८ यद्यपि भगवती आराधना ९ में भी इन तीनों को पंडितमरण के तीन भेद के रूप में स्वीकार किया गया है, लेकिन श्वेताम्बर मान्य साहित्य आचारांग, उत्तराध्ययन में इस रूप में नहीं है। आचारांग में इन तीनों ही प्रकार के विवेकयुक्त मरण का उल्लेख है, परन्तु नामों का विवरण नहीं है। समवायांग १९ में तीनों का उल्लेख मरण के विविध रूपों के साथ किया गया है, जबकि स्थानांग १२ में 'भक्तप्रत्याख्यान और प्रायोपगमन का नामोल्लेख है और इंगिनीमरण का नाम नहीं है। इसी तरह उत्तराध्ययन ११३ में तीन प्रकार के विवेकसहित मरण का उल्लेख तो है, लेकिन नामों का अभाव है। त्यक्त शरीर के तीन भेद हैं
१. भक्तपरिज्ञा (भक्तप्रत्याख्यान)
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२. इंगिणी, और
१. भक्तप्रत्याख्यानमरण
भक्तप्रत्याख्यानमरण का विवरण भगवती ११४, स्थानांग ११५, समवायांग ११६, जैसे प्राचीनतम आगमों में मिलता है । भक्तप्रत्याख्यान, भक्त और प्रत्याख्यान इन दो शब्दों से मिलकर बना हैं भक्त अर्थात् आहार (भोजन) प्रत्याख्यान यानी त्याग । इस तरह से आहार का योग करके जो मरण ग्रहण किया जाता है वह भक्तप्रत्याख्यान कहलाता है। इसका
३. प्रायोग्य ।
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