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________________ समाधिमरण बनाए रखता है। असह्य दुःख या हार्दिक खुशी की अवस्था में भी वह न तो दुःखी होता है और न खुश ही । सुख-दुःख को वह कर्मों को क्षय करनेवाला कारक मानता है । दुःख को जहाँ पूर्व में किए गए बुरे कर्मों का प्रतिफल मानता है, वहीं सुख को पूर्व में किए गए अच्छे कर्मों का प्रतिफल मानता है। किसी प्रकार की व्याधि, रोग आदि होने पर भी वह प्रमाद नहीं करता है, वरन् यह सोचता है कि यह रोग और व्याधि मेरे लिए अच्छा ही है, क्योंकि इनसे मेरे कर्मों का क्षय होता है। तात्पर्य यह है कि व्यक्ति सुख-दुःख दोनों को ही कर्मों का क्षय करनेवाला कारक तथा अपना उपकारक समझता है दोनों ही अवस्थाओं में समत्व का भाव बनाए रखता है। दूसरी ओर आत्महत्या करनेवाला व्यक्ति सुख-दुःख आदि परिस्थितियों से विचलित होता रहता है। सुख की अवस्था में उसे खुशी होती है जिसे वह अच्छा मानता है तथा दुःख की अवस्था में दुःखी होता है और उसे बुरा मानता है । सुख की प्राप्ति के लिए वह हर तरह के अच्छे बुरे कार्यों का सम्पादन करता है तथा दुःख से मुक्ति प्राप्त करने के लिए भी हर अच्छे-बुरे कार्य करता है । इस प्रकार वह कर्मों के बन्धन में पड़ता जाता है। रोग-व्याधि आदि होने पर उसे बहुत ही कष्ट होता है। इस प्रकार समाधिमरण में जहाँ सुख-दुःख अवस्था में भी समत्वभाव रखकर वर्तमान समय के कर्मों के फल को संचित नहीं किया जाता है, वहीं आत्महत्या में कर्म का संचय किया जाता है। ८८ समाधिमरण मुख्य रूप से प्राकृतिक या कृत्रिम विपदाओं के समय में ग्रहण किया जाता है। वृद्धावस्था के कारण या किसी रोग के कारण व्यक्ति का शरीर अत्यन्त दुर्बल हो गया हो, जब उसकी शक्ति क्षीण हो गयी हो, वह अपना आवश्यक कार्य भी स्वयं नहीं कर पाता हो, इसके लिए उसे किसी की सहायता की आवश्यकता हो, तात्पर्य है कि शरीर जब भाररूप हो गया हो और उसका त्याग करना ही ठीक जान पड़ता हो, तभी व्यक्ति समाधिमरण के द्वारा देहत्याग करे। दूसरी अवस्था में जब व्यक्ति ऐसे संकटपूर्ण परिस्थिति में फँस गया हो जहाँ से निकल पाना सम्भव नहीं हो, प्राण जाने की भी आशंका हो, ऐसी परिस्थिति जिसमें उसके ब्रह्मचर्य भंग होने तथा कुछ अन्य कारण से उसे पतित होने की सम्भावना हो, तभी अपने धर्म और पवित्रता की रक्षा के लिए समाधिमरण के द्वारा उसे देहत्याग करना चाहिए । लेकिन आत्महत्या करनेवाला व्यक्ति मात्र वृद्धावस्था, रोग की अवस्था या जीवन के संकटपूर्ण क्षणों में अपने धर्म रक्षार्थ देहत्याग नहीं करता है, वरन् वृद्धपना, रोग के कष्टों तथा संकटपूर्ण अवस्थाओं में होनेवाले कष्टों के कारण दुःखी मन से अपना देहत्याग करता है । समाधिमरण और आत्महत्या की विधि में भी अन्तर है। समाधिमरण करनेवाला Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002112
Book TitleSamadhimaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajjan Kumar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Epistemology
File Size10 MB
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