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________________ भाँति आज भी समाधिमरण समारोहपूर्वक अत्यन्त श्रद्वा के साथ स्वीकार किया जाता है। यह ठीक है कि इस परम्परा से अनभिज्ञजन इस पर विविध तरह के आक्षेप करते रहते हैं । परन्तु यह भी सत्य है कि इसके धार्मिक एवं आध्यात्मिक स्वरूप पर शायद ही कभी किसी तरह का विवाद किया गया हो। जैनेतर मतों में देहत्याग के रूप में विविध प्रकार के रूप मान्य रहे हैं जैसे पर्वत, वृक्ष अथवा किसी ऊँचे स्थान से गिरकर प्राणत्याग करना, अंग विशेष की बली चढ़ाकर, अग्नि में जलकर, जल में डूबकर, भारी वाहनों के सामने कूदकर मरण प्राप्त करना । एक समय में मरण प्राप्त करने की इन विधियों को धार्मिक, नैतिक एवं सामाजिक मान्यता प्राप्त थी। लेकिन कालान्तर में इनका विरोध हुआ और अंतत: इन पर प्रतिबंध लगा दिया गया । ऐसा क्यों हुआ इस पर चिन्तकों में पर्याप्त ऊहापोह की स्थिति है। इस सम्बन्ध में उनका यही चिन्तन है कि मृत्यु को प्राप्त करने के ये प्रारूप अत्यंत वीभत्स एवं अमानवीय हैं । इनका सामाजिक दुरूपयोग सम्भव है । दूसरी तरफ समाधिमरण का देहत्याग मृद, शान्त, सौम्य है जिसका दुरूपयोग कर पाना शायद सम्भव नहीं है । यही कारण है कि समाधिमरण पूर्व की भाँति आज भी जैनों के बीच लोकप्रिय बना हुआ है। ___ अस्तु यह माना जा सकता है कि समाधिमरण देहत्याग का एक प्रारूप है जिसका दार्शनिक, धार्मिक, नैतिक, सामाजिक एवं आध्यात्मिक महत्त्व है । इसके साथ-साथ समाधिमरण का अपना इतिहास भी है। प्रस्तुत पुस्तक में समाधिमरण से सम्बन्धित विभिन्न प्रकार के पक्षों का विवेचन भिन्न-भिन्न अध्यायों में हआ है। पुस्तक में उपलब्ध सामग्री का प्रामाणिक विवेचम प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया गया है। किन्तु मेरा परिश्रम तभी सार्थक होगा । जब विद्वान् पाठक इस पर अपनी प्रतिक्रिया और परामर्श हेतु दो शब्द कहेंगे। प्रस्तुत कृति में कुछ कमियाँ अवश्य होंगी जिसका उत्तरदायित्व मेरा है जिसका परिमार्जन पाठक के परामर्श के बिना शायद सम्भव नहीं है। प्रस्तुत पुस्तक को पूर्ण करने में विविध स्तरों पर भिन्न-भिन्न महानुभावों का प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप से सहयोग रहा है । अत: इस सन्दर्भ में सर्वप्रथम मैं पूज्य गुरुवर प्रो० सागरमल जैन (मानद निदेशक एवं मंत्री, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी) के प्रति अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ जिनके निर्देशन में यह कार्य पूर्णता को प्राप्त हआ है और जिनकी स्वीकृति पर यह पुस्तक प्रकाशित हुई है। अत: उनका मै हृदय से आभारी पद्मविभूषण स्व० दलसुख मालवणिया (अहमदाबाद), प्रो० रामजी सिंह (पूर्व कुलपति, जैन विश्व भारती विश्वविद्यालय, लाडनूं (राजस्थान), प्रो० कमलचन्द सोगाणी (पूर्व अध्यक्ष, दर्शन विभाग, सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर), प्रो० उमाशंकर लाल (पूर्व अध्यक्ष, इतिहास विभाग, मगध विश्वविद्यालय, बोध गया), प्रो० रेवती रमण पाण्डेय (आचार्य; दर्शन विभाग, का० हि० वि० वि०, वाराणसी) का आभारी हूँ जिनकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002112
Book TitleSamadhimaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajjan Kumar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Epistemology
File Size10 MB
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