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३० : आचाराङ्ग का नीतिशास्त्रीय अध्ययन होती है। यह संसार जन्म-मरण की अनादि शृंखला है । जब तक आत्मा पूर्वकृत कर्मों को भोग नहीं लेता, तब तक जन्म-मरण का चक्र समाप्त नहीं होता । आचारांग में कहा गया है कि 'अज्ञानी जीव ही इस संपार में परिभ्रमण करता है५२ बद्धात्मा का ही पूनर्जन्म होता है। यह आत्मा अनेक बार उच्चगोत्र और अनेक बार नीच गोत्र में जन्म ले चुका है।५3 जीव प्रमादवश भिन्न-भिन्न जन्म धारण करता है।५४ नाना योनियों में जाता है। वह प्रमादी पुरुष ( कर्म-विपाक को) नहीं जानता हआ ( व्याधि से ) हत और ( अपमान से) उपहत होता है और बार-बार जन्म-मरण करता है।५५ भगवतीसूत्र में भी कहा है कि कर्मयुक्त जीवों का पुनर्जन्म होता है । ५६ जब तक कर्म को निर्मूल नहीं कर दिया जाता, तव तक पुनर्जन्म का प्रवाह, रुकता नहीं है । वस्तुतः राग-द्वेष, कषाय, प्रमाद आदि कर्मबन्ध के कारण हैं, और कर्म जन्ममरण की परम्परा का कारण है। इसीलिए आचारांग में कहा है कि'मायी पमायी पुणरेइ गभं, मोहेण गम्भं मरणाति एति, एत्थ मोहे पुणो पुणो । ५६ मायी और प्रमादी जीव बार-बार गर्भ में अवतरित होता है और जन्म-मरण करता है। संसार में बार-बार जन्म-मरण के कारण मोह ( ममत्व ) उत्पन्न होता है । इसीलिए साधक को पुनर्जन्म के चक्र से मुक्त होने का निर्देश देते हए कहा है कि 'निस्सारं पासिय णाणी, उपवाय चवणं णच्चा। अणण्णं चर माहणै' ।५८ हे मुणे ! (विषय ) निस्सार है तथा जन्म और मृत्यु निश्चित है ऐसा जानकर तू अनन्य (मोक्ष-मार्ग ) का आचरण कर । हिन्दू परम्परा में भी यह पुनर्जन्मसिद्धान्त स्वीकार किया गया है ! ऋग्वेद५९ और यजुर्वेद में भो पुनर्जन्म की अवधारणाएँ पाई जाती हैं । अथर्ववेद में कहा है कि जीवात्मा न केवल मानव या पशु का जन्म-मरण करती है, किन्तु जल, वनस्पति आदि अनेक योनियों में बार-बार जन्म लेती है । औपनिषदिक विचारधारा भी यही है। न्याय और योग-दर्शन६४ में भी पुनर्जन्म का समर्थन मिलता है। गीता६५ में अनेक स्थानों पर पुनर्जन्म सम्बन्धी निर्देश उपलब्ध हैं । बौद्ध दर्शन यद्यपि अनात्मवादी है, तथापि उसमें पुनर्जन्मसिद्धान्त की मान्यता है। आत्मा को अमरता और पुनर्जन्म :
आचारांग में आत्मा की नित्यता के आधार पर पुनर्जन्म को व्याख्या उपलब्ध है। तत्त्वार्थसूत्र में कहा गया है कि 'उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं
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