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प्रकाशकीय
जैन आगम साहित्य में आचारांग प्राचीनतम ग्रन्थ है । विद्वानों की ऐसी मान्यता है कि इसमें भगवान महावीर के मूल उपदेश सुरक्षित हैं आचारांग का वर्ण्य विषय सामान्यतया जैन आचार और विशेषतया जैन मुनि आचार है । यद्यपि आचारांग के सम्बन्ध में कुछ स्वतन्त्र ग्रन्थ प्रकाशित हुए हैं, किन्तु इसका पाश्चात्य नीतिशास्त्र के परिप्रेक्ष्य में तुलनात्मक और समीक्षात्मक अध्ययन नहीं हो पाया था । सम्भवतः यह प्रथम ग्रन्थ है जिसमें पाश्चात्य नीतिशास्त्र के सिद्धान्तों के परिप्रेक्ष्य में आचारांग को नीतिशास्त्रीय मान्यताओं का समीक्षात्मक अध्ययन किया गया है । यद्यपि पाश्चात्य नीतिशास्त्र के सन्दर्भ में जैन नीतिशास्त्र का व्यापक समीक्षात्मक अध्ययन इसके पूर्व डॉ० सागरमल जैन ने किया है किन्तु उन्होंने अपने अध्ययन का आधार सम्पूर्ण प्राचीन जैन साहित्य को बनाया है । साध्वो श्री प्रियदर्शना जी की यह विशेषता है कि उन्होंने आचारांग को ही आधार बनाकर उसको पाश्चात्य नीतिशास्त्रीय दृष्टि से समीक्षा की है । इस दृष्टि से यह ग्रन्थ एक नवीन विधा से लिखा गया है और आचारांग के नीतिशास्त्र के सम्बन्ध में प्रथम प्रामाणिक ग्रन्थ कहा जा सकता है ।
पार्श्वनाथ विद्याश्रम के लिए यह सौभाग्य का विषय है कि साध्वीश्री ने पार्श्वनाथ विद्याश्रम के परिसर में रहकर डॉ० सागरमल जैन के सान्निध्य में इस महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ को पूर्ण किया था जिसपर उन्हें, अवधेश प्रताप सिंह विश्वविद्यालय, रीवा से पी-एच० डी० की उपाधि प्राप्त हुई है । यद्यपि यह ग्रन्थ काफी पहले ही प्रकाशित हो जाना चाहिए था किन्तु कुछ अपरिहार्य कारणों से इसमें विलम्ब होता गया । यह आचार्य प्रवर जयन्तसेनसूरि जी म० सा० की कृपा का ही प्रतिफल है कि उन्होंने हमें इसके प्रकाशन के लिए न केवल प्रेरित किया अपितु इसके लिए २१०० रुपये का आर्थिक सहयोग श्री राजेन्द्र सूरीश्वर जैन ट्रस्ट, मद्रास
द्वारा विद्याश्रम को दिलवाया। हम आचार्यश्री जी एवं साध्वीश्री जी के अत्यन्त आभारी हैं कि उनकी प्रेरणा, प्रयत्न और पुरुषार्थं के परिणाम स्वरूप यह ग्रन्थ पाठकों के समक्ष प्रस्तुत कर रहे हैं ।
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