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________________ नैतिकता के तत्त्वमीमांसीय आधार : २५ अधिकांश भारतीय एवं पाश्चात्य दार्शनिक आत्म-अस्तित्व के विषय में एकमत हैं। ___ अस्तित्व-बोध के पश्चात् सहज ही यह प्रश्न उठता है कि आत्मा का स्वरूप क्या है ? भारतीय मनीषियों ने विविध रूप से इसे स्पष्ट करने का प्रयास किया है। इस सम्बन्ध में सर्वाधिक विवादास्पद प्रश्न यह है कि ज्ञान आत्मा का निजगुण है या आगन्तुक गुण है ? न्यायवैशेषिक दर्शन ज्ञान को आत्मा का आगन्तुक गुण मानते हैं। उनकी यह मान्यता है कि बद्ध अवस्था में ज्ञान आत्मा में रहता है और मुक्तावस्था में नष्ट हो जाता है, जबकि सांख्य और वेदान्त ज्ञान को आत्मा का निज गुण स्वोकार करते हैं । वेदान्त में कहा है कि 'विज्ञानं ब्रह्म' अर्थात् विज्ञान ही ब्रह्म ( परमात्मा ) है । ___ अभिधान राजेन्द्र कोश में आत्मा की व्युत्पत्ति के विषय में कहा गया है कि 'अतति इति आत्मा' अर्थात् जो गमन करता है वह आत्मा है । अर्थात् जो ज्ञानादि गुणों में सतत् रमण करता है वह आत्मा है। जैन दर्शन में आत्मा के लक्षण एवं स्वरूप के सम्बन्ध में पर्याप्त गहराई से चिन्तन हुआ है । आचारांग में आत्मा के स्वरूप का विवेचन करते हुए कहा गया है कि 'जे आया से विण्णाया जे विण्णाया से आया। जेण वियाणइ से आया । तं पडुच्च पडिसंखाए। एस आयावाइ समियाए परियाए वियाहिए', अर्थात् जो आत्मा है, वही विज्ञाता है, और जो विज्ञाता है वही आत्मा है। जिसके द्वारा वह जानता है उस ज्ञान पर्याय की अपेक्षा से वह आत्मा कहलाता है। इसलिए उसे आत्म-वादी समता का पारगामी कहा गया है। __ इस प्रकार आचारांग ज्ञान को आत्मा का स्वलक्षण बताता है। आल्मा ज्ञान स्वरूप है। स्वरूप की दृष्टि से आत्मा और ज्ञान में अभिन्नता है। ज्ञान को आत्मा का गुण कहा गया है । गुण और गुणी में अभेद होता है, अतः आत्मा ज्ञानमय है। ___ जहाँ आधुनिक मनोविज्ञान में चेतना के ज्ञानात्मक, अनुभूत्यात्मक एवं संकल्पात्मक तीन लक्षण बताए गए हैं, वहाँ आचारांग में आत्मा के ज्ञानलक्षण पर ही विशेष जोर दिया गया है। गहराई से चिन्तन करने पर केवल जानना-देखना ही आत्मा का स्वलक्षण या स्वस्वभावसिद्ध होता है। आचारांग में समता को जो आत्मा का धर्म कहा गया है वह केवल ज्ञाता द्रष्टा भाव की दृष्टि से । यहाँ आत्मा के विज्ञाता स्वरूप पर विशेष बल देने का कारण यह प्रतीत होता है कि भावात्मक एवं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002111
Book TitleAcharanga ka Nitishastriya Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Research, & Ethics
File Size13 MB
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