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१८ : आचाराङ्ग का नीतिशास्त्रीय अध्ययन बीसवां अध्ययन (शब्द ):
सरस, मोहक या मनोज्ञ शब्दों के मोह से मुक्ति पाना इस अध्ययन का मुख्य विषय है। इसमें यह बताया गया है कि श्रमण को इन्द्रियासक्त होकर शब्दों को सुनने का संकल्प नहीं करना चाहिए। इक्कीसवां अध्ययन ( रूप ):
इस अध्ययन में चक्षुरिन्द्रिय से सम्बन्धित विषय का वर्णन है । इसमें यह कहा गया है कि संयमशील मुनि की चक्षुरिन्द्रिय के विषयों के प्रति रागद्वेष नहीं करना चाहिए । बाईसवां अध्ययन (पर-क्रिया) :
इस अध्ययन में श्रमण के लिए यह निर्देश है कि वह गहस्थ से किसी प्रकार की सेवा न ले। यदि कोई गृहस्थ वैयावृत्य ( सेवा ) की दृष्टि से मुनि के पैर प्रक्षालन करे, मालिश करे अथवा पैर दबाए तो मुनि को स्पष्ट इनकार कर देना चाहिए। तेईसवां अध्ययन-(अन्योन्य क्रिया):
इस अध्ययन का प्रतिपाद्य साधु का स्वावलम्बन है। साधु-साध्वी को बिना किसी विशेष परिस्थिति के एक दूसरे की सेवा नहीं लेनी चाहिए। चौबीसवां अध्ययन ( तृतीय चूला ) भावना :
इस अध्ययन में श्रमण भगवान् महावीर का जन्म तथा उनका पवित्र जीवन-वृत्त अंकित है। महाव्रतों एवं पच्चीस भावनाओं का विवेचन है। पच्चीसवाँ अध्ययन-( चतुर्थ चूला ) विमुक्ति :
इस अध्ययन में मोक्ष के साधनभूत कर्म-निर्जरा के साधनों का विवेचन है।
सन्दर्भसूची
प्रथम अध्याय १. संपा०-५० खबचन्द्र जा सिद्धान्तशास्त्री, सभाष्य तत्त्वार्थाधिगम सूत्र
( उमास्वामी ) परमश्र त प्रभावक मण्डल, बम्बई, सन् १९७४, १/२०. राधामोहन विद्यावाचस्पति गोस्वामी भट्टाचार्य, कणादकृत न्यायसूत्र विवरण, मेडिकल हाल प्रेस, बनारस, सन् १९३९, प्रथम अध्याय, प्रथम अह्निका, १/६.
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