________________
उपसंहार आचारांग जैन आचार दर्शन का प्रथम एवं प्राचीनतम ग्रन्थ है । भारतीय और पाश्चात्य सभी विद्वान् इस सम्बन्ध में एक मत हैं कि महावीर के द्वारा उपदिष्ट आचार दर्शन का निकटतम रूप से प्रतिपादन करने वाला यदि कोई ग्रन्थ है तो वह आचारांग ही है। इस रूप में आचारांग भगवान महावीर की वाणी का प्रतिनिधि ग्रन्थ है। यह एक सुनिश्चित तथ्य है कि आचारांग ईसा की तीसरी शताब्दी से भी पहले का ग्रन्थ है और उसमें जैन आचार प्रणाली का प्राचीनतम रूप सुरक्षित है। ___ आचारांग के प्रथम और द्वितीय श्रुतस्कंध के संकलनकर्ता एवं रचनाकाल को लेकर जो विवाद प्रचलित हैं उसमें इतना तो सत्यांश अवश्य है कि भाषा एवं शैली की दृष्टि से प्रथम एवं द्वितीय श्रुतस्कंध दो भिन्न काल के संकलन हैं और द्वितीय श्रतस्कंध प्रथम श्रतस्कंध की चलिका के रूप में ही जोड़ा गया है किन्तु उससे दूसरे श्रुतस्कंध का महत्त्व कम नहीं हो जाता है। वस्तुतः वह प्रथम श्रुतस्कंध की मूलभूत अवधारणाओं को ही अधिक विस्तृत एवं स्पष्ट रूप से व्याख्यायित करता है। अतः इस सन्दर्भ में मेरा कहना केवल इतना ही है कि चाहे द्वितीय श्रुतस्कंध, प्रथम श्रुतस्कंध की विस्तृत व्याख्या हो और इस रूप में चाहे उसका परवर्ती भी हो परन्तु जहाँ तक दोनों के मूल हार्द का प्रश्न है कोई विशेष अन्तर नहीं है । द्वितीय श्रुतस्कंध भी प्रथम श्रुतस्कंध में प्रतिपाद्य विषय का ही समर्थन करता है और कोई भिन्न अथवा नवीन तथ्य प्रस्तुत नहीं करता है जो उसे प्रथम श्रुतस्कंध से पूर्णतः पृथक कर देता हो।
आचारांग के नीतिदर्शन की मूलभूत पूर्व मान्यतायें आत्मा की अमरता और कर्म सिद्धान्त हैं। आचारांग के प्रारम्भ में ही इस बात को स्पष्ट कर दिया गया है कि जो आत्मा के पुनर्जन्म के सिद्धान्त को मानकर चलता है वही क्रियावादी है । आत्मा की अमरता और आत्मा के कर्तृत्व एवं भोक्तृत्व को आचारांग स्पष्ट रूप से स्वीकार करता है। आचारांग ने गीता के समान ही यह स्वीकार किया है कि आत्मा अछेद्य, अभेद्य, अदाह्य और अहन्य है एवं पूर्वजन्म को ग्रहण करता है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org