________________
आचाराङ्गसूत्र स्वरूप एवं विषयवस्तु : १३
की सापेक्षता से सम्बन्धित है । तृतीय उद्देशक में निर्जरा के साधनभूत निष्काम तप का वर्णन है । चतुर्थ उद्देशक में संयम साधना में स्थिर रहने का उपदेश है ।
पांचवां अध्ययन (लोकसार ) :
इस विराट विश्व में अहिंसा, तप, संयम आदि सारभूत तत्त्व माने गए हैं। इन्हें संसार का सार बताते हुए निर्युक्तिकार ने कहा हैलोगस्ससारो धम्मो, धम्मंपिय णाणसारियंबिति ।
णाण संजमसारं, संजमसारं च निव्वाणं ॥ ३७ लोक का सार धर्म है, धर्म का सार ज्ञान है, ज्ञान का का सार संयम और संयम का सार मोक्ष है ।
सम्यग्दर्शन का महत्त्व सम्यक् चारित्र के विकास में है, अतः प्रस्तुत अध्ययन में सम्यक् चारित्र के विविध पहलुओं पर प्रकाश डाला गया है । साधक को यह उद्बोधन दिया गया है कि वह सर्वथा परिग्रह रहित होकर आन्तरिक विकारों पर विजय प्राप्त करे ।
इस अध्ययन में छः उद्देशक हैं । प्रथम उद्देशक में काम-भोग, उसके कारण तथा निवारण के उपायों का वर्णन है । द्वितीय उद्देशक में अप्रमाद की महत्ता प्रतिपादित है । तृतीय उद्देशक में परिग्रह त्याग तथा काम-विरक्ति का सन्देश है । चतुर्थं उद्देशक में अपरिपक्व साधु के एकाकी विहार से होने वाली हानियाँ बतायी गयी हैं। साथ ही कर्मबन्ध और उसके विवेक का निरूपण भी है । पाँचवें उद्देशक में आचार्य की महिमा, सत्य, श्रद्धा, माध्यस्थभाव, अहिंसा एवं आत्म-स्वरूप का सम्यक् विवेचन है । छठें उद्देशक में मुक्तात्मा के स्वरूप का मार्मिक वर्णन है ।
छठवां अध्ययन ( धूत ) :
इस अध्ययन का नाम 'धूत' है। प्राचीन काल में आत्म शुद्धि की प्रकिया को 'धूत' कहा जाता था। बौद्ध ग्रन्थों में भी इसी अर्थ में 'धूत' शब्द का प्रयोग हुआ है । 'धूत' का अर्थ है प्रकम्पित या शुद्धि | 'धूत' दो प्रकार का है - द्रव्यधूत और भावधूत । शरीर, वस्त्र आदि का मैल दूरकर ( अशुद्धि साफ कर ) उसे स्वच्छ या निर्मल करना द्रव्यधूत कहलाता है । भावधूत वह है जिससे अष्टविध कर्मों का ( धूनन) प्रकम्पन होता है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org