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श्रमणाचार : २४३ मिलती है। वास्तव में मन-वचन और कायरूप क्रिया योग द्वारा ही आत्मा में कर्मास्रव होता है । अतः नये कर्मबन्धन को रोकने और पुराने कर्मों को नष्ट करने में त्रिगुप्ति की साधना विशेष रूप से आवश्यक है। यथार्थतः समस्त आधार साधना के मूल में मन-वचन और काया की सदसद् प्रवत्ति और निवृत्ति ही मुख्य है। इसलिये साध को मन, वचन और काया के अशुभ योगों का नियंत्रण करना चाहिये। यही श्रमणश्रमणी का त्रिगुप्तिरूप सम्यक् आधार है। बारह भावनाएँ:
साधना को सजीव और ओजस्वी बनाने के लिये मन की साधना अनिवार्य है। मन को साधे बिना साध्वाचार में शुद्धता नहीं आ सकती अतः मन को साधने तथा श्रद्धा और वैराग्य की स्थिरता एवं वृद्धि के लिये आचारांग में अनुप्रेक्षाओं ( भावनाओं) का प्रतिपादन किया गया है। वास्तव में पूर्व जीवन के विघटन और नये जीवन की निर्माण प्रक्रिया में इन अनुप्रेक्षाओं का बहुत अधिक उपयोग है। अनुप्रेक्षा का अर्थ हैबार-बार चिन्तन करना । 'पासणाह चरियं १५६ में भावना का लक्षण स्पष्ट करते हुये कहा है-'जिन चेष्टाओं और संकल्पों के द्वारा मानसिक विचारों या मनोभावों को भावित या वासित किया जाय उन्हें भावना कहते हैं।' यह एक मनोवैज्ञानिक सत्य है कि जिस विषय का बार-बार अभ्यास किया जाता है उससे मन प्रभावित हुये बिना नहीं रहता । अतः ऐसे चिन्तन या अभ्यास को ही भावना कहा गया है। महर्षि पतंजलि ने भी भावना और जप में अभेद माना है।१५७ आचारांग में इस दुःखमयता के बोध के लिये इस संसार की दुःखमयता का बोध होना आवश्यक भी है । आचारांग में स्वीकृत 'अनित्य' 'अशरण' एवं 'अशचि' भावना के प्रत्यय को बौद्ध दर्शन में 'प्रथम आर्य सत्य' के रूप में स्वीकार किया गया है। मात्र यही नहीं, आचारांग में प्रतिपादित उक्त तीनों अवधारणाएँ अस्तित्ववाद के 'दुःखमयता' के प्रत्यय से पूरी तरह सहमत हैं।
सामान्यतया जैन दर्शन में अनुप्रेक्षा के अनेक प्रकार हैं । जिन-जिन विचारों से मानस को भावित किया जाय वे सब भावनाएँ हैं अर्थात् भावनाएँ असंख्य हैं । फिर भी उनके कई वर्गीकरण मिलते हैं । यथाआचारांग में महाव्रतों की पच्चीस भावनाओं की चर्चा है१५ जिसका वर्णन पहले किया जा चका है। इसो में अन्यत्र बारह भावनायें भी बिखरे रूप में निरूपित हैं । स्थानांग में भी धर्म एवं शुक्ल ध्यान की
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