________________
२४२ : आचाराङ्ग का नीतिशास्त्रीय अध्ययन
बना है जिसका अर्थ है इन्द्रियां तथा मन-वचन व कायिक योगों का सम्यक् रूप से संगोपन करना अर्थात् उन्हें असत् प्रवृत्ति से हटाकर आत्माभिमुख करना ही गुप्ति है । गुप्तियाँ तीन हैं—मनोगुप्ति, वचन गुप्ति और काय गुप्ति । (१) मनोगुप्ति :
मनोगुप्ति का अर्थ है-मन की चंचलता का गोपन । पापजनक, सावध, क्रियायुक्त आस्रव करने वाले, छेदन-भेदन करने वाले, द्वेषकारी, परितापजनक, प्राणघातक एवं जीवोपघातक कुत्सित संकल्पों से मन को निवृत्त करना ही मनोगुप्ति है। निर्ग्रन्थ को अशुभ वृत्तियों में जाते हुए मन को पापमय विचारों से रोककर मनोगुप्ति का सम्यक् रूप से पालन करना चाहिए क्योंकि ऐसा नहीं करने से किसी-न-किसी रूप में उससे जीव हिंसा होती है ।१५३ (२) वचन गुप्ति : ___आचारांग के अनुसार वचन को विशुद्ध बनाये रखना ही वचन गुप्ति है। यह अहिंसा व्रत की अद्वितीय भावना है। उसके अन्तर्गत बताया गया है कि श्रमण को सदोष वाणी का परित्याग कर वाणीसंयम का पालन करना चाहिये। जो वचन पापमय, सावध, जीवोपघातक तथा क्रियायुक्त हो, कठोर एवं कष्टजनक हो, उस वचन का प्रयोग या उच्चारण नहीं करना ही वचन गुप्ति है ।'५४ (३) काय गुप्ति :
आचारांग में बताया है कि निर्ग्रन्थ को मन और वचन के साथ ही शारीरिक प्रवृत्ति को शुद्ध रखना अथवा कायिक संयम रखना आवश्यक है। चूंकि उसे अपनी संयम-साधना में आवश्यक वस्त्र-पात्र आदि उपकरण उठाने-रखने की भी आवश्यकता पड़ती है। इसलिए जरूरत पड़ने पर उसे वह कार्य पूरी सावधानी से करना चाहिए अर्थात् भाण्डोपकरण आदि ग्रहण करने और रखने में, चलने-फिरने, बैठने-उठने और सोने में जो शारीरिक अंग-प्रत्यंगों की प्रवृत्ति हआ करती है, उस पर नियंत्रण कर कायगप्ति का पालन करना चाहिए । अविवेकपूर्वक शारीरिक क्रियाओं के करने से या उपकरणादि ग्रहण करने और रखने से जीवों की हिंसा होती है और वह पापबन्ध का कारण है । १५५
इस प्रकार इन तीन गुप्तियों से महाव्रतों के पालन में सहायता
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org