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आचाराङ्गसूत्र स्वरूप एवं विषयवस्तु :९ कि यदि द्वितीय श्र तस्कन्ध, प्रथम श्रुतस्कन्ध की विस्तृत व्याख्या है तो मूल हार्द्र की दृष्टि से वह भी उसका समकालीन है-चाहे शब्द अथवा व्याख्या की अपेक्षा से परवर्ती हो । आचाराङ्गकी विषय-वस्तु :
जैन धर्म की जीवन साधना पद्धति आचार-प्रधान है। उसके अनुसार आचार-विहीन ज्ञान-सम्पदा निरर्थक है। सामान्यतया जैन परम्परा में मोक्ष प्राप्ति के लिए दर्शन, ज्ञान और चारित्र साधना का अत्यधिक महत्त्व है। सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र को मोक्ष-मार्ग कहा गया है । इनमें चारित्र का सर्वाधिक महत्त्व है क्योंकि यही मोक्ष का निकटतम कारण माना गया है। चारित्र के बिना मोक्ष प्राप्ति सम्भव नहीं है।
जैन आचार संहिता (सम्यक्चारित्र ) प्रतिपादन करने वाले ग्रन्थों में आचाराङ्ग प्राचीनतम और प्रथम है। यह आध्यात्मिक अनुभूतियों की शिक्षा-मणियों एवं चारित्रिक साधना से भरा पड़ा है । यह सम्पूर्ण जैनाचार का प्रतिनिधि ग्रन्थ है। वास्तव में भारतीय-मनीषा की सम्पूर्ण आचारनिष्ठा इस ग्रन्थ में प्रतिबिम्बित होती है। ____ आचाराङ्ग के उपदेश एवं रचना का मुख्य उद्देश्य यही है कि व्यक्ति चारित्र धर्म की साधना के द्वारा जीवन के चरम लक्ष्य मुक्ति को प्राप्त कर सके । जैन धर्म की यह स्पष्ट मान्यता है कि जब तक आचार शुद्धि नहीं होगी तब तक चित्त-शुद्धि संभव नहीं और चित्त-शुद्धि के अभाव में आत्म-शुद्धि सम्भव नहीं है तथा आत्म-शुद्धि के बिना मुक्ति की प्राप्ति भी नहीं। तीव्रतम ( अनन्तानुबन्धी) क्रोध, मान आदि कषायों के निरोध रूप प्रथम चारित्र से सम्यक् दर्शन की और योग-निरोध रूप अन्तिम चारित्र से मोक्ष की प्राप्ति होती है, इस प्रकार चारित्र-जैन साधना का अथ और इति दोनों ही है।
भगवान महावीर ने आचाराङ्ग में सम्यक् आचार का निरूपण कर समूचे विश्व को शुद्ध अहिंसक जीवन जीने की विधि सिखाई । भगवान महावीर के प्रवचन का उद्देश्य यही था कि मानव-समाज अथवा व्यक्ति सम्यक आचरण के द्वारा आत्मा पर लगो हुई कर्म-कालिमा को दूरकर आत्म-दर्शन कर सके । वे चाहते थे कि प्रत्येक व्यक्ति संयम की साधना के द्वारा आत्म-कल्याण के मार्ग में प्रवृत्त हो, एवं शुद्ध जीवनयापन करते हुए आत्म-पूर्णता को प्राप्त करे। आचाराङ्ग में सदाचार की आधार
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