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आचाराङ्गसूत्र स्वरूप एवं विषयवस्तु : ७ भांति यह गद्यशैली प्राचीनतम है ।३१ इस प्रकार आचाराङ्ग का पूर्वार्द्ध चम्पूशैली का उत्कृष्ट उदाहरण है। प्रथम श्रु तस्कन्ध की शैली को तुलना ऐतरेयोपनिषद्, छान्दोग्योपनिषद्, बृहदारण्यकोपनिषद्, कृष्णयजुर्वेद आदि की शैली से की जा सकती है। आचाराङ्ग के जो पद्यांश गद्य के साथ मिले हए हैं, वे वेद एवं उपनिषदों के सूक्तों की भांति गेय हैं । ये सूक्त भी आचाराङ्ग की शैली की प्राचीनता के परिचायक हैं। ____डा० शुबिंग के अनुसार आचाराङ्ग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के पद्यों की तुलना बोद्ध ग्रन्थ सुत्तनिपात के पद्यों से की जा सकतो है। साथ ही आचाराङ्ग के पद्य-आर्या, उपजाति, अनुष्टुप् आदि वैदिक छन्दों से मिलते जुलते हैं। संक्षेप में हमें सूत्र-शैलो की विशेषता और अर्थगाम्भीर्य-दोनों प्रथमश्र त स्कन्ध में ही दिखाई देते हैं। इस प्रकार विषय, भाव एवं भाषा-शैली की दृष्टि से प्रथम श्रुतस्कन्ध अतिप्राचीन और द्वितीय श्रुतस्कन्ध अपेक्षाकृत अर्वाचीन सिद्ध होता है। प्रो० याकोबी आदि सभी विद्वान् प्रायः इसी मत से सहमत हैं । आचाराङ्ग के रचयिता: __आचाराङ्ग सूत्र का प्रारम्भ हो इससे होता है-'सुयं मे आउसं। तेणं भगवया एवमक्खायं' । हे आयुष्मन् ! मैंने सुना है कि उन भगवान ने यह कहा है। इस वचन से यह स्पष्ट होता है कि कोई तृतीय पुरुष कह रहा है कि मैंने सुना है कि भगवान् ने ऐसा कहा था अर्थात् इसके मूल उपदेष्टा भगवान महावीर हैं ।
आचाराङ्ग सूत्र के दो विभाग हैं। प्रथम श्रुतस्कन्ध का नाम 'आयार' एवं 'सामायिक' है जो ब्रह्मचर्य के नाम से भी प्रसिद्ध रहा है। उसमें नौ अध्ययन होने से उसे ‘णवबंभचेरभइओ' नव ब्रह्मचर्य भी कहा जाता है। द्वितीय श्रुतस्कन्ध का अपरनाम 'आचारान' है। जो चार चूलिकाओं में विभक्त है और वे चूलिकाएं आचार (प्रथमश्रुतस्कन्ध ) की परिशिष्ट रूप हैं। यह भी माना गया है कि प्रथम श्रतस्कन्ध में अति संक्षिप्त रूप से वर्णित आचार का ही द्वितीय श्रुतस्कन्ध में विस्तारपूर्वक वर्णन हुआ है। इसकी पुष्टि निम्नोक्त तथ्यों से भी होती है
(१) आचाराङ्ग के प्रथम अध्ययन 'शस्त्र-परिज्ञा' हिंसा के परित्याग रूप जीव संयम के सम्बन्ध में जो विचार व्यक्त हुए हैं उन्हीं के
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