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________________ १६० : आचाराङ्ग का नीतिशास्त्रीय अध्ययन मोक्षमहल की परथम सीढ़ी या विन ज्ञान चरित्रा। सम्यकता न लहै सो दर्शन, धारो भव्य पवित्रा॥ __ अंगुत्तरनिकाय१-प्रथम निपात, गोता-शांकरभाष्य५२ और मनुस्मृति५3 में भी साधना के क्षेत्र में सम्यग्दर्शन का महत्त्व माना गया है। आचाराङ्ग के 'जास्सद्धाणिक्खंतो तमेव अणुपालिआ' की भाँति गीता भी 'श्रद्धावान् लभते ज्ञानं' कहकर श्रद्धा के महत्त्व को स्वीकार करती है तथा यह भी कहती है कि 'श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छद्ध स एव सः५४ जो पुरुष श्रद्धामय होता है, उसकी जैसी श्रद्धा होती है वैसा ही वह बन जाता है। यजुर्वेद में भी कहा है 'श्रद्धया सत्यमाप्यते५५ श्रद्धा से ही सत्य की प्राप्ति होती है। तैत्तिरीय ब्राह्मण में कहा है 'श्रद्धा मेऽक्षिति अर्थात् मेरी श्रद्धा अक्षय हो क्योंकि श्रद्धा से हो देव देवत्व को प्राप्त करते ___ इस प्रकार कहा जा सकता है कि आचारांग की दृष्टि से आध्यात्म साधना में सम्यग्दर्शन का महत्त्वपूर्ण स्थान है और यहीं से साधना को शुरुआत होती है। सम्यग्दर्शन से ही साध्य की प्राप्ति होती है। सम्यग्दर्शनपूर्वक समाचरित आचरण ही सम्यग्चारित्र के नाम से पहचाना जाता है। दर्शन के अभाव में ज्ञान और चारित्र दोनों सम्यक नहीं रह पाते। सम्यगज्ञान : जैन परम्परा में त्रिविध साधना मार्ग के रूप में ज्ञान मुक्ति प्राप्ति का साधन है। किन्तु कौन सा ज्ञान मुक्ति-प्राप्ति के लिए उपादेय है, यह विचारणीय विषय है । यद्यपि आचाराङ्ग में स्पष्टः ज्ञान से संबन्धित चर्चा स्वतन्त्र रूप से नहीं है, किन्तु उसमें 'तत्थ खलु भगवया परिण्णा पवेइया',५८ 'आगय पण्णाणाणं...',५९ 'सव्वसमण्णा गय पण्णाणेहि अप्पाणेहिं--'६० णाणभट्ठा दसणलूसिणो--१ जे एगं जाणइ से सव्वं जाणइ--६२ संसयं परिजाण तो संसारे--६३ जे आया से विण्णाया--६४ आदि अनेक प्रासंगिक प्रयोग देखे जा सकते हैं। __ आचाराङ्गसूत्र के इन प्रयोगों के आधार पर यह भी स्पष्ट होता है कि परवर्ती जैन साहित्य में जिस प्रकार ज्ञान का विस्तृत विवेचन या प्रक्रिया व्यवस्थित एवं परिभाषा रूप में दृष्टिगत होती है, वह आचाराङ्ग के इन प्रयोगों में दृष्टिगोचर नहीं होती। आचाराङ्ग में 'ज्ञान' के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002111
Book TitleAcharanga ka Nitishastriya Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Research, & Ethics
File Size13 MB
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