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आचारांग का मुक्तिमार्ग : १५९
शंकाओं को छोड़कर साधना पथ पर आगे बढ़ने के लिए कहा है। क्योंकि 'वितिगिच्छ समावण्णेणं अप्पाणेणं णोलभति समाधि४१ - शंकाशील व्यक्ति ( विचिकित्सा - प्राप्त आत्मा ) समाधि को प्राप्त नहीं करता । इसी बात को गीताकार ने 'संशयात्माविनश्यति' कहकर संशय से होने वाली हानि को बताया है। आचारांग के अनुसार समस्त प्रकार की शंकाओं को नष्ट कर चैतसिक समाधि को प्राप्त करने का महत्त्वपूर्ण आलम्बन सूत्र है - 'तमेव सच्चं णी संकं जं जिणेहि पवेइयं ।' वस्तुतः यह निःशंकता सम्यग्दर्शन का प्रथम अंग है । यथार्थं दृष्टि या श्रद्धा ही एक ऐसा तत्त्व है जो साधक के ज्ञान और आचरण को सही दिशा - बोध देता है । आचारांगनिर्युक्ति में तपश्चरण, ज्ञान और चारित्र से पूर्व दर्शन की प्राथमिकता को स्वीकार किया गया है। दर्शन की महत्ता को स्पष्ट करते हुए आचार्य भद्रबाहु लिखते हैं ' तम्हा कम्माणीयं जे उ मणो दंसणम्मि पज्जइज्जादंसणवओ हि सफलाणि हुंति तवणाण चरणाइ सम्यग्दर्शन से सम्पन्न व्यक्ति के ही तप, ज्ञान और चारित्र सफल होते हैं । आचारांग की भाँति ही उत्तरवर्ती जैनागमों में भी साधना के क्षेत्र में दर्शन की महत्ता को स्वीकार किया गया है । सम्यग्दर्शन का महत्त्व प्रतिपादित करते हुए ज्ञाताधर्मकथा' 3 में इसे 'अपडिलद्ध सम्मत रयणपडिलभेणं...' कहकर रत्न की उपमा दी गई है । इस सन्दर्भ में उत्तराध्ययन ४४ में कहा है कि 'नत्थि चरितं सम्मत्त विहूण' सम्यक्त्व से रहित चारित्र का महत्त्व नहीं है । महानिशीथ ४५ में साधना के लिए सम्यग्दर्शन को प्राथमिकता दी गई है । दर्शनपाहुड और रत्नकरण्डश्रावकाचार में भी जीवन विकास के लिए ज्ञान और चारित्र के पूर्व 'दर्शन' का होना महत्त्वपूर्ण माना गया है । अष्टपाहुड में दर्शन की महत्ता को चरमोत्कर्ष पर पहुँचाते हुए यहाँ तक कहा गया है कि दंसणभट्ठाभट्ठा, दंसणभट्ठस्स नत्थि णिव्वाणं । सिज्झति चरियभट्ठा, दंसणभट्ठा ण सिज्झति । " मतलब यह है कि चारित्र भ्रष्ट व्यक्ति का निर्वाण सम्भव है परन्तु दर्शन ( सम्यग्दर्शन ) से चलित आत्मा का निर्वाण सम्भव नहीं है । सन्त आनन्दघन जी ने भी अपनी अध्यात्म वाणी में श्रद्धापरक दर्शन की महिमा का उल्लेख निम्न रूप में किया हैंशुद्ध श्रद्धानबिन सर्व किरिया करी ।
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छार (राख) पर लींपणो तेह जाणो रे ॥ ४९
पं० दौलतराम जी ने 'छहढाला ५० में दर्शन को मुक्ति मन्दिर में पहुँचने का प्रथम सोपान कहा है- वे कहते हैं
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