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आचाराङ्गसूत्र स्वरूप एवं विषयवस्तु : ३ इसका मूलार्थ है आचार का ग्रन्थ । नाम से ही स्पष्ट है कि यह 'आचार' के विभिन्न अंगों की व्याख्या करने वाला मूलभूत ग्रन्थ है ।
भारतीय चिन्तन का मूल केन्द्र 'आचार' है । 'आचार' या 'चारित्र' संस्कृति और समाज का प्राण है । वही साधना और साध्य है । 'आचार' से बढ़कर कोई धर्म नहीं है। कहा गया है कि 'आचारः प्रथमो धर्मः'।' विश्व के समस्त धर्मशास्त्र एक तरह से आचारशास्त्र हैं। इसीलिए जैन साहित्य में आचाराङ्ग को सर्वोपरि स्थान प्राप्त है। वस्तुतः जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में 'आचार' की महत्ता निर्विवाद है । कहा गया है
आचाराल्लभते आयुः आचारादीप्सिताः प्रजाः।
आचाराल्लभते ख्यातिः, आचाराल्लभते धनम् ॥ आवश्यक नियुक्ति में कहा गया है कि व्यक्ति बहुश्रुत हो, परन्तु आचार रहित हो तो उसका ज्ञान किस काम का ? वह अज्ञानी ही है। आचारहीन ज्ञानी शास्त्र का भारवाहक ही है। जैसे-चन्दन का भार वहन करने वाला गधा केवल भार ही ढोता है, उसी प्रकार आचार-हीन ज्ञानी भी शास्त्र के भार का वाहक होता है। अतः स्पष्ट है कि ज्ञान का महत्त्व आचरण में है । ज्ञानी होने का सार सदाचारी होना है। __जैनाचार्यों का स्पष्ट कथन है कि 'आचार' मुक्ति का मूल है और मोक्ष का साक्षात् कारण होने से सम्पूर्ण प्रवचन की आधार शिला है। ____ आगम साहित्य के चूर्णिकारों" एवं वृत्तिकारों ने स्पष्ट लिखा है कि सभी तीर्थंकरों ने सर्वप्रथम 'आचार' का ही उपदेश दिया है।
संघ की स्थापना या तीर्थ प्रवर्तन के लिए सर्वप्रथम आचार-सम्बन्धी व्यवस्था का होना अति आवश्यक है। आचार्य भद्रबाहु का कथन है कि 'आचाराङ्ग मोक्ष के अव्याबाध सुख की प्राप्ति का मूल और सम्पूर्ण द्वादशांगी का सार है।'१३ वह मुक्ति-महल में प्रवेश करने का भव्य-द्वार है। आचाराज के अध्ययन के बाद ही श्रमण-धर्म का यथार्थ स्वरूप समझा जा सकता है और 'गणि' बनने के लिए भी सर्वप्रथम 'आचार' का ज्ञान आवश्यक है। १४ इतना ही नहीं, उन्होंने आचाराङ्ग को भगवान के पद पर अधिष्ठित कर दिया है।१५ निशीथकार का भी यही अभिमत है कि आचाराङ्ग का अध्ययन करने के बाद ही साधक अन्य शास्त्रों के अध्ययन का अधिकारी हो सकता है। यदि वह आचाराङ्ग का अध्ययन किए बिना ही अन्य आगम साहित्य को पढ़ता है तो उसे चातुर्मासिक प्रायश्चित्त आता है। 'आचार' सम्पूर्ण जिन-प्रवचनका सार होने से
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