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११४ : आचाराङ्ग का नीतिशास्त्रीय अध्ययन आखों के सामने घूमने लगते हैं । फलतः वह उनसे विरक्त हो जाता है । इस चिन्तन-मनन से प्रत्युत्पन्न वैराग्य स्थायी एवं सुदृढ़ होता है । इस उच्चतर या आन्तरिक विकास की अवस्था में उसकी काम वासनाएं या तो पूर्णतः क्षय हो जाती हैं या फिर उनका इतना उदात्तीकरण हो जाता है कि उसे अपनी साधना से स्खलित होने का किंचित भी भय नहीं रह जाता क्योंकि उसने अपनी निम्न मनोवृत्तियों को दबाया नहीं, प्रत्युत प्रज्ञा के प्रकाश में उनका क्षय कर दिया है या उन्हें परिष्कृत कर लिया है। इस प्रकार वह साधक वासनाओं का उर्वीकरण करते हुए शीघ्र गति से आगे बढ़ता रहता है। ____ आचारांग के इसी उद्देशक में निर्दिष्ट अन्य साधकों की भांति पुनः वह विषयों की ओर लौटता नहीं है ।१५२ आचारांग में सूत्रकार ने अरतिप्राप्त साधकों की मनोदशा का चित्रण भी किया है । संक्षेप में, ऐसा साधक न तो गृहस्थ होता है और न मुनि अर्थात् न तो इस संसार का आस्वादन कर पाता है और न मोक्ष सुख का।१५३
इससे स्पष्ट है कि आचारांग में आध्यात्मिक उत्क्रान्ति के लिए त्याग-वैराग्य, आभ्यन्तर साधना पर विशेष बल दिया गया है, न कि बाह्य आचार या वेश पर । यही कारण है कि आचारांग में 'लद्धे कामे णा मिगाहइ' कहकर सच्चे त्यागी का लक्षण दिया गया है। अन्य शब्दों में यही तथ्य दशवैकालिक में भी दुहराया गया है ।१५४ तुलनात्मक दृष्टि से आचारांग का यह आत्मनिष्ठता या अन्तर्मुखी साधना का तत्त्व सत्तावाद ( अस्तित्ववाद ) की आत्मनिष्ठ नैतिकता का समानार्थक ही है । सत्तावादियों में भी विशेषतः किर्केगार्ड आत्म-निष्ठ नैतिकता का हो समर्थक है । उसकी दृष्टि से नैतिकता वस्तुनिष्ठता (बहिमुखता ) से आत्म-निष्ठ ( अन्तम खी) बनने की स्थिति है । आचारांग की शब्दावली में इसे विभाव दशा से स्वभाव दशा में आना कहा गया है। यह स्वभाव दशा चेतना के समत्व की स्थिति है और यहो आत्म-साक्षात्कार है।
इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि आचारांगकार को वासनाओं का मात्र दमन अभिप्रेत नहीं है। वस्तुओं के उपलब्ध नहीं होने से कोई व्यक्ति सच्चा त्यागी नहीं माना जा सकता। सच्चा त्यागी बनने के लिए काम-वासनाओं का त्याग अनिवार्य है। इसके बिना आन्तरिक विकास सम्भव नहीं है । अतएव आचारांग में कहा गया है कि जब तक इन्द्रिय और मन की दौड़ अन्तर्मुखी है तब तक आत्म-सिद्धि सम्भव नहीं है । सूत्रकार का कथन है कि साधना के पथ पर गतिशील साधक का
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