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________________ 70 Arhat Pārśva and Dharanendra Nexus में सर पर सर्पफण बना हुआ होता है। जैनेतर जनता में इनकी विशेष ख्याति है। कहीं-कहीं तो जैनों का मतलब ही पार्श्वनाथ का पूजक समझा जाता है। __ भगवान् पार्श्वनाथ की मूर्तियां सम्पूर्ण भारत में प्रस्तर, धातु एवं बहुमूल्य रत्नों आदि पर बनी पर्याप्त संख्या में उपलब्ध होती हैं। भारत का हृदय उत्तर प्रदेश है और इस उत्तर प्रदेश से जैन धर्म का बहुत ही निकट का संबंध है। क्योंकि ये भूमि कितने ही तीर्थंकरों के गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान एवं निर्वाण कल्याणकों से पवित्र हुई है । प्रस्तुत निबंध में इसी भूमि से उपलब्ध प्रस्तर की पूर्व-कुषाण काल से लेकर १२वीं सदी तक की मूर्तियों को मात्र समाहित करने का प्रयास किया गया है। इनमें अधिकांश प्रतिमाएं लेखरहित और कुछ लेखयुक्त, बैठी, खड़ी, सर्वतोभद्र पर, मानस्तम्भों आदि पर पाई जाती हैं। पार्श्व का आयागपट्ट पर सर्व प्राचीन निदर्शन जैन धर्म में पूजा के निमित्त चौकोर पट्ट बनाये जाते थे जिन्हें मंदिरों के भीतर, चौराहों पर लोगों को पूजा करने के निमित्त उन्हें स्थापित किया जाता था इसलिये इन्हें आर्यकपट्ट या आयागपट्ट कहते थे। ऐसे आयागपट्ट ईसा पूर्व कंकाली टीला मथुरा से प्राप्त हुए हैं। कुछ आयागपट्ट कौशाम्बी से भी पाए जाते हैं।। राज्य संग्रहालय, लखनऊ को एक ही आयागपट्ट कंकाली टीला मथुरा से प्राप्त हुआ है जिस पर अंकित रचे हुए अक्षरों की लिपि के आधार पर लगभग सोडास शकक्षत्रप के द्वितीय शती का चतुर्थांश अर्थात् पूर्व कुषाण काल का है। इस पर लेख नमो अर्हतान ..... शिवधोःषसकाः ...... भर्याय .... आयाग प ....। अर्थात् शिवघोषा की पत्नी ने इसे स्थापित करवाया था। इस पट्ट के चारों ओर कमल, व अंगूर की बेलों कोनों को ईहामृगों व श्रीवत्स चिह्न से सजाया गया है। बीज में चार नन्दीपदों के मध्य तीन सोपानों वाली चौकी पर भगवान् पार्श्वनाथ को ध्यानस्थ दर्शाया गया है। इनके सिर पर सात सर्पफण का छत्र बनाया गया है। फणों के ऊपर स्तम्भ में लगी पताका फहरा रही है। भगवान् पार्श्व के दायें-बायें नमस्कार मुद्रा में एक-एक दिगम्बर मुनि खड़े हुए हैं। पार्श्व अंकित चरण-चौकी : संग्रह में यह पार्श्व भगवान् की बैठी मूर्ति की चरण-चौकी बड़ी रोचक है। मूल मूर्ति दुर्भाग्य से प्राप्त नहीं है। इस पर लेख इस प्रकार है : .....स्थ निकियेकुलेगनिस्थ उगहिनियशिषो, वाचको घोषको अर्हतोपश्वस्य प्रतिमा अस्तु, अर्हन्त पार्श्व की प्रतिमा से सुस्पष्ट है। लिपि के आधार पर जब हम अन्य प्रतिमा लेखों के अक्षरों से तुलना करते हैं तो ५८ कनिष्क प्रथम से पूर्व हुविष्क अर्थात् हुविष्क से पूर्व की यह चरण-चौकी स्वयंसिद्ध हो जाती है। पार्श्व मस्तक : संग्रह में खंडित फणों से नीचे मुंडित मस्तकयुत पार्श्व का मस्तक है। इसकी आंखें गोल व आधी खुली हैं तथा माथे पर बिन्दी है। यह मस्तक हविष्क व वासदेव के शासन काल के मध्य बनाया गया प्रतीत होता है। लखनऊ के संग्रह में तीन अन्य पार्श्व मस्तक हैं इन मस्तकों पर प्रायः मांगलिक यथा चक्र, नन्दीपाद, त्रिरत्न, पुष्पगुच्छ व घट आदि का अंकन पाते हैं। इनमें एक में सप्तफण के छत्र के नीचे पार्श्वमुख सुरक्षित पाते हैं किन्तु शेष दो के नीचे पार्श्वमुख का अभाव है। मथुरा संग्रहालय में एक सर्पफण के नीचे पार्श्वमस्तक का अंकन है और सर्पफणों पर स्वस्तिक, सरावसम्पुट, श्रीवत्स, त्रिरत्न, पूर्णघट व मत्स्य युग्म बने हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002108
Book TitleArhat Parshva and Dharnendra Nexus
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Dhaky
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages204
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationBook_English, Articles, History, Art, E000, & E001
File Size8 MB
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