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पार्श्वनाथ प्रतिमाएं
: उत्तर प्रदेश से पूर्व कुणाल काल से लेकर बारहवीं सदी तक :
शैलेन्द्र कुमार रस्तोगी
जैन शासनधर्म का मूल तो अर्हत् चिन्तन ही है। वह भी उनसे किसी प्रतिफल की इच्छा से नहीं अपितु अपने अन्दर उनके गुणों को लाना है । अर्हतों को अतीत उत्सर्पिणी और अनागत उत्सर्पिणी में हुये और होने वाले २४, २४ तीर्थंकरों की सूची जैन ग्रन्थों में मिलती है। वर्तमान अवसर्पिणी के २४ तीर्थंकरों को जोड़कर ७२ तीर्थंकर (पार कराने वाला) होते हैं। प्रथम तीर्थंकर ऋषभनाथ और अंतिम महावीर है। किन्तु २३वें तीर्थंकर भगवान् पार्श्वनाथ हैं।
पार्श्व का अर्थ समीपे सप्पंसयणे जणणी, तं पासइतमसि तेण पास जिणों. १०६९ । पश्यति सर्वभावानितति निरूक्रात्पार्श्वः । तथा गर्भस्थे भगवति जनन्या निशि शयनीयस्य पार्श्वे अन्धकारे सपों दृष्टं इति गर्भानुभावोऽयमिति पश्यतीति पार्श्वः । अस्यामवसर्पिण्यां भरतक्षेत्रे त्रयोविंशे तीर्थंकरे
तीर्थंकर पार्श्व : ईसा० पू० ८७७, ७७७ को ऐतिहासिक पुरुष माना जाता है।
भगवान् पार्श्वनाथ काशी के राजा अश्वसेन के पुत्र थे उनकी माता का नाम वामा था । इन्होंने तप की तुष्टि के अर्थ राजकीय विलासी जीवन को त्याग दिया था। इनकी चित्तवृत्ति आरंभ से ही वैराग्य की ओर विशेष थी । विवाह का प्रस्ताव हँसकर टाल दिया। एक बार ये वाराणसी में गंगा किनारे घूम रहे थे । वहाँ पर कुछ तापसी व माता-पिता विहीन ब्राह्मण कुमार कमठ आग जलाकर तपस्या कर रहे थे। ये इनके पास जाकर बोले " इन लक्कड़ों को जलाकर क्यों जीव हिंसा करते हो ।" कुमार की बात सुनकर तापसी बड़े झल्लाये और बोले "कहाँ है जीव ।" तब कुमार ने तापसी के पास से कुल्हाड़ी उठाकर ज्यों ही जलती हुई लकड़ी को चीरा तो उसमें से नाग-नागिन का जलता हुआ जोड़ा निकला। कुमार ने उन्हें मरणोन्मुख जानकर उनके कान में मूलमंत्र दिया और दुःखी होकर चले गये। इस घटना से कुमार उदास रहने लगे और राजसुख को तिलांजलि देकर प्रव्रजित हो गये। एक बार ये अहिक्षेत्र के वन में ध्यानस्थ थे। ऊपर से उनके पूर्व जन्म का वैरी कमठ कहीं जा रहा था। देखते ही उसका पूर्व संचित वैरभाव भड़क उठा। वह उनके ऊपर ईंट और पत्थरों की वर्षा करने लगा। जब उससे भी उसने भगवान् के ध्यान में विघ्न पड़ता न देखा तो मूसलाधार वर्षा करने लगा। आकाश में मेघों ने भयानक रूप धारण कर लिया, उनके गर्जन- तर्जन से दिल दहलने लगा। पृथ्वी पर चारों ओर पानी ही पानी उमड़ पड़ा। ऐसे घोर उपसर्ग के समय नाग-नागिन मर पाताल लोक में धरणेन्द्र और पद्मावती हुए थे, वे अपने उपकारी के ऊपर उपसर्ग हुआ जानकर तुरन्त आए । धरणेन्द्र ने सहस्रफण वाले सर्प का रूप धारण करके भगवान् के ऊपर अपना फण फैला दिया और इस तरह उपद्रव से उनकी रक्षा की। सुप्रभात स्तोत्र में इन्हें "घोर उपसर्ग विजयिन, जिन पार्श्वनाथ" कहा गया है। इसी समय पार्श्वनाथ को केवलज्ञान की प्राप्ति हुई और उस वैरीदेव ने उनके चरणों में सीस नवाकर उनसे क्षमा मांगी। इनकी जो मूर्तियां पाई जाती हैं, उनमें उक्त घटना की स्मृति
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