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भक्तामर का आंतरदर्शन
गुणाकर सूरि के पाठ में दसवें पद्य के प्रथम चरण में “नात्यद्भुतं भुवनभूषणभूत ! नाथ !" ऐसा पाठ है, पर कापड़िया जी ने पदच्छेद के आधार पर पादटीप में "नात्यद्भुतं भुवनभूषण ! भूतनाथ !" पाठ को समीचीन बताया है सो ठीक है । अमृतलाल शास्त्री के, एवं कुछ अन्य आधुनिक दिगम्बर प्रकाशनों में भी, इसी प्रकार का पाठ लिया गया है; और हमने भी यहाँ उसी स्वरूप को स्वीकार किया है ।
कटारिया महोदय ने एक और गलती की तरफ ध्यान खींचा है । “श्लोक ६ में "तच्चारुचाम्रकलिका' पाठ प्रचलित है । यह पाठ मूल ग्रन्थकार कृत नहीं है । प्राचीन प्रतियों में "तच्चारुचूतकलिका' पाठ ही पाया जाता है । प्राणप्रिय काव्य, जिसके भक्तामर स्तोत्र के प्रत्येक श्लोक का अंतिम चरण समस्यापूर्ति के रूप में ग्रहण किया गया है, उसमें भी “तच्चारुचूतकलिका" पाठ ही उपलब्ध होता है । अत: यही पाठ मूल ग्रन्थकार कृत ज्ञात होता है लेकिन इसमें 'चूत' शब्द को अश्लील समझकर उसकी जगह 'चाम्र' पाठ का परिवर्तन कर दिया गया है । यह परिवर्तन भी ३००, ४०० वर्ष प्राचीन प्रतियों में पाया जाता है किन्तु ‘चाम्र' में जो 'च' है वह समासादि की दृष्टि से सदोष है । अत: आज के युग में उसे भी संशोधित कर 'तच्चाम्रचारुकलिका' पाठ बना दिया गया है । इसमें चाम्र को पहले रख दिया है और चारु को बाद में । इससे समास सम्बन्धी दोष तो दूर हो गया है किन्तु इसमें भी 'च' शब्द व्यर्थ रह गया है ।
मूल स्तोत्रकार ने 'चूत' शब्द का प्रयोग 'आम्र' अर्थ में किया है, किसी अश्लील अर्थ में नहीं। अत: किसी प्रान्तीय अर्थ को लेकर किसी शब्द विशेष में अश्लीलता का आरोप समुचित नहीं।"
यद्यपि उन्होंने कटारिया जी का लेख नहीं देखा है फिर भी प्रबुद्ध जीवन के तंत्री महोदय प्रा० रमणलाल शाह का कुछ ऐसा ही अवलोकन रहा है । सम्बन्धक" पादपाठ का शब्दान्तर देने के बाद आपने कहा है : “इन दोनों पाठों में केवल एक शब्द का ही फर्क है । 'चूत' के स्थान पर अधिकांश लोग ‘आम्र' बोल देते हैं । 'चूत' शब्द का अर्थ आम्र-वृक्ष होता है और आम्र शब्द का अर्थ भी आम्र-वृक्ष होता है । परन्तु कवि प्रयोजित मूल शब्द तो 'चूत' ही है । सभी प्राचीन पाण्डुलिपियों में इस तरह ही है । संस्कृत में 'चूत' शब्द बहुत ही प्रचलित है । आम के पेड़ के अर्थ में यह बहुधा प्रयोग में आया है और अच्छी तरह रूढ़ भी हुआ है । परन्तु आखिर के एक-डेढ़ सदी से 'चूत' शब्द गुजराती, हिन्दी, मराठी एवं पंजाबी वगैरह भाषाओं में स्त्रीलिंग-दर्शक शब्द के अर्थ में प्रचलित बन गया है । इसलिए यह शब्द किसी को अश्लील या बीभत्स लगे, ऐसा संभव है । इस कारण किसी पंडित ने अपनी तरफ से 'चूत' के बदले इसका पर्याय रूप 'आम्र' शब्द रख दिया है, जो छंद की दृष्टि से बैठ जाता है । पाठशालाओं में शिशुओं के लिए भी किसी-किसी को उपयुक्त लगा है । परन्तु यह एक अनधिकृत चेष्टा है । कवि ने जो शब्द प्रयोजित किया उसको अपनी मर्जी के मुताबिक, लोकाचार को लक्ष्य करके, फेरफार करने का अधिकार किसी को नहीं है । ऐसा फेरफार कवि को अभिप्रेत भी नहीं हो सकता है । आराधकों को तो कवि के मूल शब्द को ही लेकर चलना चाहिए । व्यावहारिक रूप से जो लोग ऊपर न उठ सकें उनकी आराधना इतनी कच्ची समझी जायेगी । तदतिरिक्त कवि का
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