________________
भक्तामर का आंतरदर्शन
यों तो भक्तामर का प्रकाशित पाठ काफ़ी विशुद्ध दिखाई देता है, फिर भी कहीं-कहीं कुछ स्थानों पर छपे हुए पाठों में थोड़ा सा अन्तर भी मिलता है, जिनके पीछे प्रसिद्धकर्ताओं को मिली हुई प्रतियों के पाठ कारणभूत रहे होंगे । स्तोत्र की श्वेताम्बर आवृत्ति विशेषकर गुणाकरसूरि के दिये गये पाठ पर आधारित है । पर अब तक किसी ने पाटन, खंभात एवं जैसलमेर के ग्रन्थ भण्डारों में उपलब्ध प्राचीनतम ताड़पत्रीय पोथियों को आदर्श बनाकर पाठ को सुनिश्चित नहीं किया है । सर्वप्रथम प्रा० कापड़िया के संस्करण के अन्तर्गत पादटीपों में कहीं-कहीं टिप्पणों के संग पाठान्तरों को भी दिया गया है । दूसरी ओर कटारिया जी ने भी स्तोत्र में दिगम्बर प्रतियों में मिले पाठान्तरों की सूची तैयार की है । इन दोनों को मिलाकर जिनमें स्पष्ट अन्तर दिखाई देता है, ऐसे पाठान्तरों की सूची हमने भी मूलस्तोत्र के पीछे दी है ।
___ कटारिया महोदय ने प्रचलित पाठ में ऐसे एक पाठान्तर के आधार पर बहुत ही महत्त्व का सुधार सूचित किया है । यहाँ हम उनके कथन को यथातथ उद्धधृत करना ठीक समझते हैं । उनकी दी गई युक्ति को उन्हीं के शब्दों में ग्रहण करना आसान रहेगा । “श्लोक ४२में "बलवतामपि भूपतीनां' पाठ प्रचलित है, जिसका अर्थ है कि-"युद्ध में बलवान राजाओं की भी सेना आपके स्तवन से शीघ्र विनष्ट हो जाती है ।" इस पर संभवत: यह शंका होती है कि बलवान राजा तो स्वपक्ष में और स्वयं भी हो सकता है, फिर स्तुतिकार उनका विनाश कैसे चाहेगा ? इसका समाधान वि० सं० १५६३ के बसवा ग्राम के एक गुटके से होता है । उसमें “बलवतामरि भूपतीनां' शुद्ध पाठ पाया गया है जिससे श्लोकार्थ इस प्रकार होता कि “युद्ध में बलवान शत्रु राजाओं की सेना आपके स्तवन से शीघ्र विनष्ट हो जाती है ।'' 'अपि' की जगह 'अरि' शुद्ध पाठ होने से श्लोक कितना सुसंगत और निर्दोष हो गया है यह बताने की जरूरत नहीं है । विज्ञ पाठक इसकी खूबी का स्वयं अनुभव कर सकते हैं, फिर भी एक बात मैं यहाँ और बता देना चाहता हूँ कि प्राकृत में २३ गाथात्मक एक “भयहरस्तोत्र'' है जो श्वेताम्बरों के यहाँ से “जैन स्तोत्र संदोह' द्वितीय भाग में प्रकाशित हुआ है । इस स्तोत्र को भी मानतुंग की ही कृति बतलायी जाती है क्योंकि 'भक्तामर स्तोत्र' की तरह इसके भी अंतिम श्लोक में (श्लेषात्मक) मानतुंग शब्द पाया जाता है । भक्तामरस्तोत्र में जिस तरह ८ भयों का वर्णन है उसी तरह ‘भयहरस्तोत्र' में भी है । इसकी १७ वीं गाथा में 'रण' भय के अन्तर्गत रिउणरिन्द (रिपुनरेन्द्र) शब्द मिलता है जिससे भक्तामरस्तोत्र के ‘अरिभूपतीनां' शुद्ध पाठ का समर्थन होता है' ।" ।
कटारिया जी द्वारा सूचित यह पाठ-विशुद्धि बहुत ही मर्मयुक्त एवं उपयुक्त है और यहाँ हमने इसको स्वीकार किया है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org