________________
मानतुंगाचार्य और उनके स्तोत्र
और चौथा है कोई अनामी कर्ता का मध्यकालीन जिनेन्द्रनमस्कार:
भाषाप्रभावलयविष्टरपुष्पवृष्टिः __ पिण्डिद्रुभस्त्रिदशदुन्दुभिचामराणि । छत्रत्रयेन सहितानि लसन्ति यस्य
तस्मै नभस्त्रिभुवन प्रभवे जिनाय ।।६।। इतना ही नहीं, कल्याणमन्दिर-स्तोत्र, जो उभय सम्प्रदाय में समान रूप से सम्मानित-प्रचलित है, वहाँ भी यही हालत है, जो तालिका कम्रांक ६ में देखा जा सकता है ।
यह देखते हुए सूरिसम्राट् की दलीलों का अर्थ नहीं रहता ।
३) भक्तामर की पद्य संख्या ४८ नहीं ४४ है, ऐसे सूरिजी के मंतव्य से अलबत्ता हम सहमत हैं, लेकिन वह अलग ही कारणों से, जिस विषय में पिछले पृष्ठों में लम्बी चर्चा हो चुकी हैं ।
टिप्पणियाँ :१. Jacobi, "Foreword," भक्तामर०, सूरत १९३२, p. II. २. "प्रस्तावना,” स०-भ०-२०, पृ० ३०-३१. ३. इन विद्वानों में एक तो शायद ज्योतिप्रसाद जैन थे ऐसा स्मरण है । दुर्भाग्यवश इससे सम्बद्ध हमारी 'नोट' गायब
हो जाने से यहाँ सन्दर्भ नहीं दे पायें । अपवादरूपेण एक उत्तर मध्यकालीन दाखला जरूर मिलता है, लेकिन उसका वर्तमान सन्दर्भ में कोई उपयुक्तता नहीं है । (चर्चा के लिए देखिये "कुमुदचन्दाचार्य प्रणीत "चिकुर द्वात्रिंशिका"" (सं० मधुसूदन ढांकी - जितेन्द्र शाह,
निर्ग्रन्थ २, पृ० १६, टिप्पण १०.) ४. “भूमिका," (संस्कृत), भक्तामर०, पृ०३५ तथा वही : "स्तोत्रयुगलनु तुलनात्मक पर्यालोचन," (गुजराती), पृ०
३२-३३. ५. वही. परन्तु डा० नेमिचन्द्र शास्त्री का कहना ठीक है कि “भक्तामर के अंतरंग परीक्षण से यह स्पष्ट प्रतीत होता है
कि यह स्तोत्र कल्याण-मंदिर का पूर्ववर्ती है । कल्याण-मन्दिर में कल्पना की ऊंची उड़ानें है वैसी इस स्तोत्र में नहीं है । अतः भक्तामर के बाद ही कल्याण-मन्दिर की रचना हुइ होगी । अत: भक्तामर की कल्पनाओं का पल्लवन एवं उन कल्पनाओं में कुछ नवीनताएँ चमत्कारपूर्ण शैली में पाया जाता है ।।" "कोइ भी निष्पक्ष समालोचक उपर्युक्त विश्लेषण के प्रभाव में इस स्वीकृति का विरोध नहीं कर सकता है कि भक्तामर का शब्दों, पदों और कल्पनाओं और पदावलियों का विस्तार कल्याण-मन्दिर में हुआ है ।" ("आचार्य मानतुंग," अनेकान्त १८.६,
फर्वरि १९६६, पृ० २४५ - २४६.) ६. भ० स्तो०, द्वितीय संस्करण, वाराणसी १९६९, पृ० १३. ७. फिर भी देखिये यहाँ आगे साराभाई नवाब के विचार । ८. नवाब, पूर्वाचार्य०, बीजी आवृत्ति, अहमदाबाद १९६२, पृ० १३.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org