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भक्तामर की पद्यसंख्या
तो है ही पर गुजराती भाषा जानने वाले के लिए भी तो वह एकदम आसान नहीं है । अब हम अपना अवलोकन पेश करेंगे ।
१) कल्याणमन्दिरस्तोत्र भक्तामरस्तोत्र से प्राचीन है ऐसी मान्यता सभी की नहीं है, न ही वह है तथ्यपूर्ण ! (दिगम्बर विद्वान् ऐसा नहीं मानते, और हम भी नहीं मानते५ ।) कल्याणमन्दिरस्तोत्र दिगम्बराचार्य कुमुदचन्द्र की, ईस्वी १२वीं शती के प्रथम चरण में की हुई रचना है; जबकि भक्तामरस्तोत्र इससे कम से कम पाँच सौ साल पुरानी रचना है। इससे यदि अनुकरण हुआ है तो वह भक्तामरस्तोत्र का कल्याणमन्दिरस्तोत्र की रचना में, न कि इससे विपरीत ।
२) हम पिछले पृष्ठों में देख चुके हैं कि प्रातिहार्यों के वर्णन में कोई निश्चित क्रम नहीं है६६। जहाँ एक ही पद्य में सभी प्रातिहार्यों के लिये दिये गये पद्य क्रम छन्द के अन्तर्गत आने वाले मात्रागणादि को ध्यान में लेते हुए, अनुकूलता के अनुसार, पद्यनिबन्धन में कलात्मकता-रसात्मकता को ध्यान में लेते हुए, रखा जाता है और जहाँ एक-एक प्रातिहार्य के लिए पृथक्-पृथक् काव्य दिया गया है, वहाँ भी क्रम में समानता नहीं है ।
जो पद्य सूरीश्वर ने उट्टंकित किया है, वह हम पीछे प्रारम्भ की गई चर्चा में उसके मूल स्रोत के निर्देश समेत देख आये हैं । यह कोई प्रातिहार्यों के क्रम के लिए निश्चित धोरण (standard) के उदाहरण के रूप में नहीं माना जा सकता । न वह दिगम्बर साहित्य में मिल पाता है । हम यहाँ चार दिगम्बरकृत भिन्न-भिन्न स्तोत्रों में से जो पद्य पेश करेंगे जिससे इस तथ्य की और भी पुष्टि हो जायेगी। पहला पद्य शान्तिजिन की स्तुति के अन्तर्गत है । इसकी टीका प्रभाचन्द्र ने की है, इसलिए वह ११वीं शताब्दी के पूर्व की रचना होनी चाहिए ।
दिव्यतरुः सुरपुष्पवृष्टिः
दुन्दुभिरासनयोजन घोषौ । आतपवारण चामर युग्मे
यस्य विभाति च मंडलतेजः ।।११।। कवि भूपाल चक्रवर्ती के चतुर्विशतिका-स्तोत्र (प्राय: १०-११वीं शताब्दी) का भी पद्यांश यहाँ पेश करेंगे:
देव: श्वेतातपत्रत्रयमरिरुहाशोकभाशक्रभाषा ।
पुष्पौधासारसिंहासन पटहरैष्टभिः प्रातिहार्यः ।। तीसरा है विष्णुसेन का समवशरणस्तोत्र, जो मध्यकालीन लगता है । यहाँ क्रम इस रूप में मिलता है:
छत्रत्रयसिंहासनसुरदुंदुभिपुष्पवृष्टिभाषाशोकाः । भावलयचामराणीत्यष्टमहाप्रातिहार्यविभवसमेतः ।।२८।।
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