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मानतुंगाचार्य और उनके स्तोत्र
बारस गुण तुंगयरं असोग वर पायवं रम्मं ।। ततो विफल इयं तिहुयण - सामित्तणेक्क वर चिंधं । चंदावलि व्व रइयं छत्ततियं धम्मणाहस्स ।। पासेहिं चामराओ सक्कीसाणेहिं दो वि धरियाओ । कुट्ट सीह - णाओ विडंति य दिव्व- कुसुमाई ।।
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( यद्यपि यहाँ दिव्यध्वनि अनुल्लिखित रह जाता है फिर भी कर्त्ता को वहाँ अष्ट महाप्रातिहार्य ही अभिप्रेत थे ऐसा कहा जा सकता है 1 )
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कुवलयमालाकहा १७९
इसके तुरंत बाद के पुन्नाटसंघीय जिनसेन के हरिवंशपुराण ( ईस्वी ७८४ ) में, पञ्चस्तूपान्वय के स्वामी वीरसेनशिष्य जिनसेन के आदिपुराण ( ईस्वी ८३६ - ८५० के बीच ) में तथा बाद के दिगम्बर मध्यकालीन साहित्य में प्रातिहार्यों के उल्लेख मिलते रहते हैं, जैसा कि श्वेताम्बर साहित्य में भी । (देखिए तालिका क्रमांक ६)
अब पुरानी जिन प्रतिमाओं के विषय में क्या स्थिति थी वह देखा जाय तो कुषाणकालीन तथा गुप्तकालीन मथुरा, अहिच्छत्रा (अधिच्छत्रा ), एवं विदिशा ( ईस्वी ४३६ ) के दृष्टांतो में विभूतियों की उपस्थिति और उसकी संख्या किसी नियम को लेकर हो ऐसा महसूस नहीं होता । कहीं तीन, तो कहीं चार, तो कहीं पाँच । कहीं चैत्यवृक्ष दिखाया है तो अधिकतर में भामण्डल से ही काम चलाया है । सिंहासन बहुधा मिलता ही है, पर चामरधारी मिलते भी हैं और नहीं भी । उनके स्थान पर आराधकों की आकृतियाँ भी मिल जाती हैं । छत्र सम्बद्ध देखा जाय तो वह गुप्तयुग के प्रारम्भ तक प्रतिमा के भामण्डल के ऊपर के हिस्से से संलग्न न होकर प्रतिमा के पिछले हिस्से में जुड़ी स्तम्भिका पर जोड़कर अद्धर (above) रख दिया जाता था । ( और वह भी छत्रत्रय न होकर समकालिक बुद्ध प्रतिमा में होता था, इस तरह एक ही छत्र रहा होगा । ) प्रतिमाओं से संलग्न प्रातिहार्यों की संख्या में वृद्धि प्राय: सातवीं शताब्दी से दिखाई देती है, जब से छत्र भी कभी-कभी छत्रत्रय के रूप में नज़र आना प्रारंभ होता है । देवदुन्दुभि भी मिल ही जाय ऐसा नियम नहीं, और पुष्पवृष्टि तो आकाशचारी मालाधर - विद्याधरों के द्वारा सूचित होती थी । (दिव्यध्वनि को तो शिल्प में चित्रित करना या आभासित करना मुश्किल है ।)
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वेताम्बर साहित्य में प्रातिहार्य से सम्बद्ध स्पष्ट रूप से दो भिन्न अभिगम दिखाई देते हैं । आगम एवं आगमिक साहित्य में अष्ट- प्रातिहार्यों का कोई एक समवाय, विशिष्ट समूह रूपेण अलग विभाव, था ही नहीं । वहाँ तीर्थंकरों के ३४ अतिशयों के अंतर्गत प्रातिहार्यों में से चार या कभी - कभी पाँच या छह IIT ही समावेश रहा । (देखिए तालिका क्रमांक ५ ।) सब से पहले कथात्मक साहित्य में अष्ट प्रातिहार्य की कल्पना प्रकट रूप से दिखाई देती है, और वहाँ स्पष्ट हो जाने के बाद वह अनुगुप्त एवं प्राक्मध्यकाल से, श्वेताम्बर आगमिक व्याख्या - साहित्य में उसको स्वीकार करके, समाविष्ट किया गया । दूसरी ओर दिगम्बर साहित्य में अष्ट- महाप्रातिहार्य मानी जाती विभूतियाँ, उनके मान्य ३४ अतिशयों में शामिल नहीं है । त्रिलोकप्रज्ञप्ति ( प्राय: ईस्वी ५५० ) में दिये गये ३४ अतिशयों में सिर पर चक्र धारण किये
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