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भक्तामरस्तोत्र के सर्जक एवं सर्जनकथा
कथात्मक साहित्य में भक्तामरस्तोत्र के प्रणेता के रूप में सर्वत्र मानतुंगसूरि का ही नाम प्रसिद्ध है । उसमें कहीं वैमत्य नहीं । उनकी गृहस्थ-पर्याय और प्रव्रज्या-पर्याय सम्बन्धी विगतें (details) विशेषरूप से सबसे पहले प्रभावकचरित (ईस्वी १२७७) में मिलती हैं । सम्राट हर्षवर्धन (ई० स० ६०६-६४७) की सभा में महाकवि बाण और कविराज मयूर की प्रतिस्पर्धा से सम्बद्ध लोकप्रसिद्ध किंवदन्तियों के अनुसार, मयूर द्वारा चमत्कारपूर्ण सूर्यशतकस्तव और बाण द्वारा चंडीशतकस्तव की रचना को लेकर निर्ग्रन्थ मुनि भी ऐसी ही चामत्कारिक रचना करने में पीछे नहीं थे ऐसा दिखाने के लिए राजा से निर्ग्रन्थमतावलम्बी मन्त्री का मानतुंगाचार्य को बुलावा देने का अनुरोध, जंजीर से बांधकर एक कमरे में सूरि को कैद रखना, ४४ श्रृंखला से बांधा जाना और इन कारणों से ४४ पद्ययुक्त भक्तामरस्तोत्र की रचना करके उसके प्रभाव से (एक-एक पद्य के प्रादुर्भाव के संग-संग) जंजीरों का क्रमश: टूटना, इत्यादि का उल्लेख मिलता है । बाद के प्रबन्ध, चरितों एवं महिमापरक साहित्य में घटनास्थल और समकालीन राजा तथा कविवर के सम्बन्ध में कमोबेश बातें भिन्न-भिन्न स्रोतों में, कभी-कभी काफ़ी फ़र्क के साथ, दिखाई देती हैं । इन कथाओं की भीतरी बातों पर मुख्य रूप से महामनीषी यकॉबी, प्रा० कापड़िया, डा० नेमिचन्द्र, तथा डा० ज्योतिप्रसाद जैन आदि विद्वान् विचार कर चुके हैं; इसलिए हम इन बातों को यहाँ संक्षेप में तालिका क्रमांक ४ में दे रहे हैं, तथा तत्सम्बन्धी कुछ उपयुक्त विवेचन नीचे दे रहे हैं।
ऐतिहासिक दृष्टि से सबसे उपयोगी चर्चा विद्वचूडामणि यकॉबी द्वारा हुई है। उनसे कुछ साल पूर्व विद्वद्वर्य क्तकेनबॉस द्वारा मयूर के सूर्यशतक काव्य पर लिखी गई उनकी प्रस्तावना में जो कुछ कहा गया था, उससे याकॉबी महोदय का कथन थोड़ा आगे निकल जाता है । सांप्रत चर्चा में उनके कथन का सारांश देना यहाँ उपयुक्त सिद्ध होगा । यकॉबी महोदय ने बताया है कि बाण और मयूर के समकालीन होने का कोई प्रमाण नहीं मिलता । शार्ङ्गधर (ईस्वी १३६८) ने राजशेखर (प्राय: ईस्वी ९००) का निम्न उटूंकित जो उद्धरण दिया है, उसके आधार पर इतना ही कहा जा सकता है कि दशम शतक के आरम्भ में ये दोनों महाकवि. श्रीहर्ष की सभा के सदस्य माने जाते थे । उद्धरण इस प्रकार है:
अहो प्रभावो वाग्देव्या यन्मातङ्गदिवाकरः ।
श्रीहर्षस्याभवत्सभ्य: समं बाणमयूरयोः ।।। तत्पश्चात् कवि पद्मगुप्त ने नवसाहसांकचरित (प्राय: ईस्वी १०००) में कहा है कि बाण और मयूर में चल रही स्पर्धा हर्ष द्वारा प्रोत्साहित होती रहती थी । यथा :
स चित्रवर्णविच्छित्तिहारिणोखनीपतिः । श्रीहर्ष इव संघर्ट चक्रे बाणमयूरयोः ।।
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