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________________ प्रास्ताविक निर्ग्रन्थ महापुरुषों और उनकी रची हुई कृतियों का साधार, सतर्क एवं प्रामाणिक समयनिर्णय, और जहाँ-जहाँ कर्ता के मूल सम्प्रदाय को लेकर अनिश्चितता या विवाद रहा हो, योग्य निर्णय हो जाना निर्ग्रन्थ साहित्य के इतिहास-आलेखन में बहुत ही आवश्यक है । कुछ वर्षों से हमारा प्रयत्न ऐसे प्रश्नों के प्रमाणाधीन उत्तर खोजने की दिशा में रहा है । कुछ ऐसी ही समस्याएँ मानतुंगाचार्य एवं उनकी सुप्रसिद्ध कृति भक्तामरस्तोत्र के बारे में रही हैं, जिन पर इस पुस्तक में विशेष विचार किया जायेगा। भक्तामरस्तोत्र, इसके सर्जक, सर्जनकाल एवं सम्प्रदाय के सम्बन्ध में साम्प्रत काल में बहुत कुछ लिखा गया है । कुछ विद्वानों ने स्तोत्र के अनुवाद, अर्थमीमांसा एवं रसदर्शन के अतिरिक्त ऐतिहासिक दृष्टिकोण से भी लिखा है । इस प्रकार के लेखन में कुछ न कुछ नई एवं महत्त्वपूर्ण बातें समाविष्ट हुई हैं, जिनका हमने अपनी समीक्षा में सादर-साभार उपयोग किया है । साथ ही कुछ बातें वहाँ ऐसी भी देखने को मिलती हैं जो या तो अज्ञानमूलक आग्रह का प्रतीक मात्र अथवा साम्प्रदायिक विवशता की पकड़ ही प्रकट करती हैं । वे प्रमाणपरक या न्यायसंगत नहीं हैं । तथ्यान्वेषण के अभाव वाले इन दोनों प्रकार के अभिगम के परिणामस्वरूप इतिहास विकृत तो हुआ ही, साथ ही उस हिसाब से चलने वाले सभी लोग यथार्थता का रास्ता छोड़कर गुमराह भी हुए हैं । कहीं-कहीं तो अभिगम की एकांगिता के अलावा लेखन भी कुत्सित बन गया है । इससे किसी भी तटस्थ विद्वान को संतोष नहीं हो सकता, रंजोग़म ज़रूर होता है । इस सोचनीय स्थिति से निपटने का प्रयत्न यहाँ किया जाता है, और सभी मुद्रित मंतव्यों एवं उपलब्ध प्रमाणों (तथा प्रमाणाभासों) के परीक्षणोपरान्त जो कुछ निष्कर्ष निकल सका है. यहाँ रखा गया है । इस प्रक्रिया में हमने लेखकों के मल विधानों को, सन्दर्भ के औचित्य एवं आवश्यकतानुसार, यथातथ उद्धृत भी किया है, जिससे उनके आशय समझने में मदद मिले और उनके वक्तव्यों, मंतव्यो एवं अभिप्रायों के साथ अन्याय होने की संभावना कम से कम रहे । (गुजराती भाषा के लेखन जहाँ-जहाँ उद्धृत हैं, हिन्दी में अनूदित करके रखे गये हैं, जिससे गुजराती न समझने वाले पाठक आसानी से मूल कर्ता का अभिप्राय समझ सकें ।) इस गवेषणा के फलस्वरूप जो नतीजा निकल सका है वह आखिरी है ऐसा नहीं कहा जा सकता; विशेष प्रतीतिकर तथ्य सामने न आने तक ही उसको हम ठीक समझते हैं । जिस वक्त इससे विपरीत नये एवं मजबूत सबूत मिल जायेंगे, हम निर्णय बदल देंगे । (समालोचना में विनय एवं विवेक का त्याग न हो जाय इस बात का ध्यान रखा गया था; फिर भी पूरे लेखन के पुनरवलोकन के पश्चात् हमें लगा है कि कहीं-कहीं ध्वनि में व्यंग्य एवं आक्रोश की पतली सी छाया आ ही गई है । हम इस घटना के लिये क्षमाप्रार्थी हैं ।) हमने यहाँ केवल भक्तामरस्तोत्र तथा भयहरस्तोत्र को ही मानतुंगाचार्य की मौलिक कृतियाँ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002107
Book TitleMantungacharya aur unke Stotra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Dhaky, Jitendra B Shah
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year1999
Total Pages154
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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