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मानतुंगाचार्य और उनके स्तोत्र
वटकला अरिहंता तउणा सिध्धा य लोटकल सूरि ।।१०।। पण्णनिवहो ककाइ जेसिं बीओ हकार पजंतो ।।१३।। कक्कड तुला य साहू दो दह शसी दु पंचपरमिट्ठी ।।२४।।
ति दुअणसामिणिवजा महमं तो मूलमंततंताई ।।३०।। स्तोत्र में उच्च कोटि का भक्तिरस नहीं है, न ही पूरे स्तोत्र में कहीं भी उदात्त भावाभिव्यक्ति। पंचपरमेष्ठि के आत्मिक गुणानुवाद भी नहीं । साहित्यिक गुणवत्ता भी सामान्य कोटि की ही हैं तथा भक्तामर एवं भयहर जैसी देदीप्यमानता भी नहीं । यह, सभी स्थान पर साधारण प्रकार की कल्पना के स्वामी एवं मंत्र-तंत्रादि में आस्था रखने वाले किसी अन्य ही, और मध्यकालीन, मानतुंग की रचना प्रतीत होती है, जो न बनी होती तो निर्ग्रन्थ स्तुत्यात्मक वाङ्मय रंक हो जाता ऐसा मानने के लिए बाध्य करने वाला एक भी कारण उपस्थित नहीं है । (इस विषय में कुछ हम पीछे भी, अध्याय ५ में, कह चुके हैं ।) मध्यकाल, जिसमें ११वीं उत्तरार्द्ध से लेकर १३वीं १४वीं शती तक जो तीन-चार मानतुंग हो गये हैं, इनमें से किसी एक की यह रचना हो सकती है ।
टिप्पणियाँ :१. कापड़िया, भक्तामर०, पृ० २३७-२३९. २. वही, पृ० २३७, २३९. ३. वही, पृ० २३९. ४. वही, पृ० २३७, २३९. ५. कापड़िया, जैन संस्कृत साहित्य०, २, पृ० ३१३. ६. इस विषय में देखिये अध्याय ८, टिप्पणी ११. (१४वीं शतादी में मानतुंग नाम धारण करनेवाले कोई मुनि थे ऐसा
सन्दर्भ देखा था ।)
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