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परिशिष्ट
मानतुंग की मुद्रा वाला एक और स्तोत्र भी है; प्राय: १४ वें शतक से लेकर इसे श्वेताम्बर सम्प्रदाय में भक्तामरकार मानतुंग की रचना मानी जाती है । स्तोत्र के अन्तर्गत पंचपरमेष्ठि का स्तुत्यात्मक उल्लेख होने से उसको पंचपरमेष्ठिस्तवन अभिहित किया गया है और चूँकि उसका प्रारम्भ ‘भत्तिब्भर' शब्द से होता है इसलिए वह भत्तिब्भरस्तोत्र भी कहा जाता है । 'मानतुंग' मुद्रा वाला अन्तिम एवं प्रारंभ का पद्य यहाँ सन्दर्भार्थ प्रस्तुत किया जाता है
पंचनवकार थुत्तं लसेणं संसिअं अणुभावेणं । सिरि माणतुंग माहिंदमुज्जलं सिवसुहं दितु ।।३२।। ।
और
भत्तिब्भरअमरपणयं पणमिय परमिट्ठिपंचयं सिरसा ।
नवकारसारधवणं भणामि भव्वाणं भयहरणं ।।१।। यूँ तो इस स्तुति को द्वात्रिंशिका कहना चाहिए था, परन्तु ३२वें पद्य के पश्चात् तीन और पद्य हैं, जो इसके श्रवण-पठन की महिमा रूपेण हैं ।
प्रकाशक कापड़िया महोदय ने इस स्तोत्र पर कुछ भी विवेचन नहीं किया । यद्यपि उक्त प्रकाशन में से उन्होंने श्वेताम्बर सम्प्रदाय के अनुसार मानतुंग की मानी जाने वाली कृतियों में पूर्व की दो अतिरिक्त इस भक्तिब्भरस्तव को भी शामिल किया है, फिर भी वे खुद उसको आदिम मानतुंगाचार्य की रचना मानते थे या नहीं ऐसी कोई स्पष्टता वहाँ तो नहीं की है; किन्तु ग्रन्थांतरेण उनका जो कथन प्राप्त है, उससे कहा जा सकता है कि वे भी उस रचना को भक्तामरकार मानतुंग मुनीश्वर की रचना ही मानते थे ।
स्तोत्र के अन्तरंग परीक्षण से तो पूर्णरूप से स्पष्ट हो जाता है कि वह भक्तामर-भयहरकार मानतुंग की रचना नहीं हो सकती । यह सामान्य कोटि की कृति है और उसमें अनेक स्थान पर मध्यकाल में ही संभवित वस्तु दृष्टिगोचर होती है, ऐसे लक्षण बड़ी संख्या में मिल जाते हैं । जैसा कि प्रथम पद्य में “नमुक्कार" या "नमोक्कार" की जगह “नवकार" शब्द का प्रयोग और “पंचक्खरनिप्फन्नो' जैसे कृत्रिम एवं अलाक्षणिक प्राकृत-शब्दगुच्छ इसके कर्ता प्राचीन काल के 'मानतुंग' होने का अपवाद करता है । निम्न उटूंकित पद्य-चरणों से बात स्पष्ट बन जायेगी :
तिअलोअवसीकरणं मोहं सिध्धा कुणं तु भवणस्स ।४। यावुच्चाऽनताडननिउणा साहू सया सरह ।।५।। पंचक्खरनिप्फन्नो ॐकारो पंचपरमिट्ठी ।।७।।
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