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________________ स्तोत्रकर्त्ता का सम्प्रदाय क्रियाकलापकार प्रभाचन्द्र की कबूलात और सिद्धर्षि स्तव के दृष्टान्त के रूप में भक्तामर का उल्लेख और ऊपर चर्चित सभी आन्तरिक प्रमाणों से वे श्वेताम्बर रहे होंगे, ऐसा ही निर्देश मिलता है । श्वेताम्बर से यापनीय को पृथक् करने वाले खास तो दो ही प्रमाण माने जाते है; मुनि का पूर्णतया नग्न रहने का सिद्धान्त एवं पाणितलभोजी रहना, और वह चर्या पर असाधारण, अत्यधिक जोर, जिसका स्तोत्र में कहीं भी जिक्र नहीं है । जहाँ तक श्वेताम्बर न होने का कोई स्पष्ट प्रमाण न मिले, उपलब्ध प्रमाणों, निर्देशों एवं परोक्ष निष्कर्षो के आधार पर वे उत्तर की निर्ग्रन्थ परम्परा के श्वेताम्बर आम्नाय में हो गये थे, ऐसा मानना तर्कसंगत होगा । फिलहाल इससे अधिक दृढ निर्णय करना संभव नहीं है । टिप्पणियाँ : १. अजितकुमार शास्त्री, “भ० स्तो०, " अनेकान्त २.१, पृ० ७०. २. देखिए अध्याय ४, पृ० ७७. ३. इन कृतियों के बारे में देखिए यहाँ आखिर में दी गई सन्दर्भसूची । ४. इसके अलावा और कोई आधार नज़र नहीं आता । इन सब साधनों के समय से पूर्व, पौर्णमिक मुनिरत्न का पीछे उद्धरण यहाँ सातवाँ अध्याय में दे चुकें हैं । इससे अंदाज़ा लगा सकतें हैं कि ईस्वी ११६९ में मानतुंग को कोई सातवाहन राजा (हाल ? ) के समकालीन माना जाता था । लेकिन सातवाहन युग में बोलबाला प्राकृत की थी, संस्कृत की नहीं । लगता है यह गलत मध्यकालीन मान्यता के आधार पर उत्तर मध्यकालीन कर्त्ताओं ने मानतुंग को ईस्वी तीसरी शती का मान लिया हो । ५. "श्री तपागच्छ पट्टावली सूत्र," श्रीपट्टावली - परागसंग्रह, जालोर १९६६, पृ० १४०-१४१. ६. वही, पृ० १४१. ७. कहीं कहीं दिगम्बर-मान्य कृतियाँ में भी दो चामर की बात कही गई हो तो भी वे रचनाएँ मूलतः दिगम्बर थी या यापनीय उसका भी निर्णय हो जाना ज़रूरी है । ८. तीर्थंकरो के ३४ अतिशयों की वर्णना में त्रिलोकप्रज्ञप्ति में "नभोगमन" का समाविष्ट किया गया है; ति० प०, भाग- १, सं० आ० ने० उपाध्ये एवं प्रा० हिरालाल जैन, जीवराज जैन ग्रन्थमाला क्रमांक- ९, शोलापुर १९४३, गाथा ८९८, पृ० २६३, तथा देवागम अपरनाम आप्तमीमांसा, सं० जुगलकिशोर मुख्तार, द्वि० सं० १९७८, प्रथम श्लोक, पृ० १, श्लोक इस प्रकार है । देवागम - नभोयान चामरादि विभूतयः । मायाविष्वपि दृश्यन्ते नातस्त्यमसि नो महान् ।। - ९. कापड़िया, भक्तामर०, "भूमिका, " पृ० १९. १०. प्रभाचन्द की क्रीयाकलाप टीका हमारे देखने में नहीं आयी है । Jain Education International १०९ - ११. योगशास्त्र की प्रतिलिपी की प्रशस्ति सं० १२९२ ( ईस्वी १२३६) अंतर्गत पट्टावली में दो मानतुंग के नाम आये हैं, जिन में से प्रथम का समय ईस्वी ११वीं शती उत्तरार्ध होने का अंदाजा हो सकता है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002107
Book TitleMantungacharya aur unke Stotra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Dhaky, Jitendra B Shah
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year1999
Total Pages154
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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