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मानतुंगाचार्य और उनके स्तोत्र
सम्प्रदाय-परिवर्तन यदि हुआ ही हो तो वह कोई सिद्धान्त को लेकर नहीं । तीसरी बात यह है कि प्रभाचन्द्राचार्य ने, वह दिगम्बर निर्ग्रन्थाचार्य कौन थे, किस संघ या अन्वय के रहे थे, बताया नहीं है। इस कथा से तो इतना ही सिद्ध होता है कि प्रभाचन्द्र जानते थे कि स्तोत्रकर्ता श्वेताम्बर सम्प्रदाय के थे; क्योंकि अपने समय में, ११वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में, कम से कम मालव स्थित दिगम्बर सम्प्रदाय के अनुयायिओं में, भक्तामरस्तोत्र का पठन होता रहा होगा, इसलिए उनके लिए श्वेताम्बर रचनाकार को दिगम्बर रूप में प्रस्तुत करना अपने-आप ज़रूरी बन गया, जैसा श्वेताम्बरों में कल्याणमन्दिरस्तोत्र अपना लेने से कुमुदचन्द्र को सिद्धसेन बनाकर श्वेताम्बर आम्नाय में रख दिया ! हो सकता है, भक्तामर के कर्ता के सम्बन्ध में चल पड़ी दिगम्बर कथा के प्रतिवाद में श्वेताम्बर प्रभाचन्द्र ने या उनसे कुछ समय पूर्व के किसी अन्य श्वेताम्बर कर्ता ने स्तोत्रकार मानतुंग पहले दिगम्बर थे, बाद में श्वेताम्बर बने, ऐसी कथा गढ़ दी हो । जो कुछ भी हो, साम्प्रतकालीन दिगम्बर विद्वद्गण को भी क्रियाकलापकार प्रभाचन्द्र के विधान की सत्यता में श्रद्धा नहीं है । वर्ना वे सब उस पर बहुत ही ज़ोर दिये बिना नहीं रहते ।
८) दिगम्बर दार्शनिक पंडित प्रभाचन्द्राचार्य से प्राय: सवा सौ साल पूर्व श्वेताम्बराचार्य सिद्धर्षि ने “स्तोत्र' शब्द के उदाहरण में भक्तामर को ही क्यों लिया, इसका एक मर्म यह भी हो सकता है कि वह उस कृति को अपने सम्प्रदाय में बनी हुई मानते होंगे । यदि वही किसी दिगम्बर कर्ता की रचना होती तो सिद्धर्षि उदाहरण शायद किसी और का, जैसे कि बप्पभट्टिसूरि, नन्दिषेण या सिद्धसेन दिवाकर की कृति का देते, भक्तामर का नहीं ।
९) यह भी आश्चर्यजनक है कि मानतुंग जैसे प्रतिष्ठित आचार्य का शुभाभिधान बाद में, कम से कम मध्यकाल में, और मुनिवरों ने धारण किया हो, ऐसा दाखला दिगम्बर सम्प्रदाय में नहीं मिलता। यों तो वहाँ सिंहनन्दी, समन्तभद्र, प्रभाचन्द्र, पद्मनन्दी, अकलंक, कुमुदचन्द्र जैसे महान् आचार्यों के नाम बाद में बार-बार मिलते रहते हैं । उधर श्वेताम्बर सम्प्रदाय में 'मानतुंग' अभिधान धारण करने वाले मुनियों के अनेक उदाहरण हैं, जिस प्रकार वज्रसेन, पालित्त किंवा पादलिप्त, भद्रगुप्त, धर्मघोष, सिद्धसेन, जिनभद्र, हरिभद्र आदि प्राचीन प्रतिष्ठित आचार्यों के । (मध्यकालीन ‘मानतुंग' आचार्यों की गुर्वावलियाँ हमने यहाँ टिप्पणी में रख दी है, वहाँ देखा जा सकता है१ ।) भक्तामरकार मानतुंग ने यदि अपना सम्प्रदाय बदल ही दिया होता तो ११वीं से लेकर १४वीं-१५वीं शती तक जो ‘मानतुंग' नामधारी मुनियों की श्रृंखला श्वेताम्बर सम्प्रदाय में मिलती है, वह शायद न मिल पाती । (तुङ्गान्त अभिधान वाले और भी नाम श्वेताम्बरों में मध्यकाल एवं उत्तर-मध्यकाल में मिलते हैं, जैसे कि विजयतुंग (ईस्वी १०वीं-११वीं शती), मेरुतुङ्ग (१३वीं-१४वीं शती), भुवनतुंग (१४वीं-१५वीं शती) इत्यादि ।)
स्तोत्रकर्ता दिगम्बर है ऐसा मानने के लिए कोई आंतरिक प्रमाण या बाह्य सबूत या विशिष्ट युक्ति हमारे सामने इस वक्त तो नहीं है, किन्तु एक तर्क यह भी हो सकता है, मानतुंगसूरि ‘यापनीय' रहे हों या उत्तर तरफ के अचेल/क्षपणक संप्रदाय (जिन को श्वेताम्बर ईस्वी छठी शती से 'बोटिक' नाम से पहचानते थे) के और श्वेताम्बर तथा दिगम्बर इन दोनों को यह बात मालूम न रही हो । लेकिन स्तोत्रकार की क्षपणकता या यापनीयता सिद्ध करने वाला यूँ तो कोई आंतरिक प्रमाण उपस्थित नहीं है।
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