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मानतुंगाचार्य और उनके स्तोत्र
यद्यपि बाण का चंडीशतक, मयूर के सूर्यशतक की अपेक्षा, कुछ सरल है और कुछ हद तक ज्यादा ओजस्वी भी, फिर भी वह भक्तामर की प्रौढ़ि और काव्यप्रकृति से बहुत भिन्न है । मानतुंगाचार्य दरबारी कवि नहीं थे और कविता-सम्प्रदाय की दृष्टि से वे आलंकारिक भी नहीं हैं । हो सकता है वे बाण, मयूर और समन्तभद्र से भी कुछ ज्येष्ठ रहे हों । उपलब्ध प्रमाणों के आधार पर इस धारणा से विशेष कुछ भी कहना अभी संभव नहीं है । सरसरी तौर पर मानतुंगाचार्य का समय ईस्वी ५५०-६२५ के बीच होना असंभवित नहीं है । दूसरी ओर देखा जाय तो बौद्ध कवि मातृचेट ही नहीं कालिदास, सिद्धसेन, आदि गुप्तयुग के कविवरों से मानतुंग की शैली भिन्न दिखाई देती है, और सामान्य रूप से उनके बाद के समय की प्रतीत होती है । लेकिन ईस्वी पाँचवी-छठी शती के माने जाने वाले नाट्यकार एवं कवि, मातृगुप्त का वसन्ततिलका-वृत्त में निबद्ध एक पद्य, जो उद्धरण के रूप में मिलता है।६, इसकी शैली से भक्तामर के पद्यों की शैली काफ़ी मिलती-जुलती है । यह पद्य इस प्रकार है
नायं निशामुखसरोरुहराजहंसः ।
कीरीकपोलतलकान्ततनुः शशाङ्कः । आभाति नाथ ! तदिदं दिविदुग्धसिन्धु
डिण्डीरपिण्डपरिपाण्डु यशस्त्वदीयम् ।। __ वसन्ततिलका में तो प्राचीन और कविवरों ने भी पद्य रचना की है, किन्तु मातृगुप्त में ही मानतुंग जैसे ढंग का कान्तिमान, नर्तनमय और सुस्पष्ट छन्दोलय दिखाई देता है । क्या मानतुंग भी गुप्तकालीन थे ? हो सकता है वे पश्चात्कालीन होते हुए भी मातृगुप्त की शैली के आदर्श को सामने रखकर चले हों । आखिर मातृगुप्त के एक ही उपलब्ध पद्य की शैली, के संग समता या सादृश्यता से मिति के विषय में दृढ़ निर्णय ले लेना समुचित न होगा । फिलहाल मानतुङ्ग को सावधानी के खातिर छठी शताब्दी उत्तरार्ध में रख दें तो अनुचित न होगा ।
एक और बात ध्यान में रखनी चाहिए कि भक्तामर का २६वाँ पद्य विविध चित्रबन्धों में रखा जा सकता है, जैसा डा० रुद्रदेव त्रिपाठी कह चुके हैं.७ । चित्रालंकार उपलब्ध संस्कृत साहित्य में सबसे पहले महाकवि भारवि (प्राय: ईस्वी ५०० से ५५०) के किरातार्जुनीय काव्य के कुछ पद्यों में मिलता है और उनके करीब सौ साल बाद उदाहरण के रूप में कविराज दंडी के काव्यादर्श में और इन दो कवियों के अन्तराल में समन्तभद्र की अनुगुप्तकालीनकृति स्तुतिविद्या में भी प्रचुर संख्यक उदाहरण मिलते हैं । उनके पूर्व कुषाणकालीन बौद्ध कविवर अश्वघोष, आर्यदेव, मातृचेट या गुप्तकालीन नाट्यकार भास, प्रशस्तिकार हरिषेण, कविकुलगुरु कालिदास, और दार्शनिक स्तुतिकार सिद्धसेन दिवाकर की कृतियों में चित्रालंकार का प्रयोग दृष्टिगोचर नहीं हुआ है । इस तथ्य को देखते हुए मानतुंगाचार्य को हम कम से कम ईस्वी छठी शती उत्तरार्ध में रखें, तो वह उनके वास्तविक काल के विशेष समीप संभावित हो सकता है।
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