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चतुर्थ शताब्दी के बाद का ग्रन्थ नहीं है । अतः इस ग्रन्थ का पार्श्व नामक अध्ययन पार्श्व के सम्बन्ध में प्राचीनतम साहित्यिक साक्ष्य के रूप में मान्य किया जा सकता है । ऋषिभाषित से परवर्ती जैन ग्रन्थों में सूत्रकृतांग, आचारांग (द्वितीय श्रुतस्कन्ध), उत्तराध्ययन, भगवती, कल्पसूत्र, निरयावलिका, आवश्यक नियुक्ति आदि में भी पार्श्व एवं पाश्र्वापत्यों सम्बन्धी स्पष्ट उल्लेख है । कल्पसूत्र के अतिरिक्त इन सभी ग्रन्थों में पार्श्व के सिद्धान्तों के साथ-साथ पार्श्व के अनुयायी श्रमण श्रमणियों और गृहस्थ उपासक - उपासिकाओं के उल्लेख हैं । कल्पसूत्र और समवायांग में पार्श्व के परिजनों का एवं जीवनवृत्त का भी संक्षिप्त उल्लेख है । अतः इन ग्रन्थों को भी पार्श्व की ऐतिहासिकता को प्रामाणित करने का एक महत्त्वपूर्ण आधार माना जा सकता है । "
आचारांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध में महावीर के माता-पिता को स्पष्ट रूप से पार्श्व का अनुयायी बताया गया हैं ।" यह बात निर्विवाद रूप से स्वीकार की जा सकती है कि महावीर के पूर्वोत्तर भारत में पार्श्व का प्रभाव था और उनके अनुयायी इस क्षेत्र में फैले हुए थे । इस तथ्य की पुष्टि पालि त्रिपिटक साहित्य से भी होती है । बुद्ध के चाचा वप्पसाक्य को निर्ग्रन्थों का उपासक कहा गया है ।" प्रश्न यह होता है कि ये निर्ग्रन्थ कौन थे ? ये महावीर के अनुयायी तो इस लिये नहीं हो सकते कि महावीर बुद्ध के समसामयिक हैं । बुद्ध के चाचा का निर्ग्रन्थों का अनुयायी होना इस बात को सिद्ध करता है कि बुद्ध और महावीर के पूर्व निर्ग्रन्थों की कोई एक परम्परा थी और यह परम्परा पाश्र्वापत्यों की ही हो सकती है । पार्श्वनाथ की परम्परा की प्राचीनता का एक और प्रमाण पालि त्रिपिटक साहित्य में यह है कि सच्चक का पिता निर्ग्रन्थ श्रावक था । सच्चक ने यह भी गर्वोक्ति की थी कि मैंने महावीर को परास्त किया । अतः सच्चक और महावीर समकालीन सिद्ध होते हैं । 84 सच्चक के पिता का निर्ग्रन्थ श्रावक होना इस बात का सूचक है कि महावीर के पूर्व भी कोई निर्ग्रन्थ परम्परा थी और सच्चक पिता का उसी निर्ग्रन्थ परम्परा का श्रावक था । पालि त्रिपिटक में निर्ग्रन्थों को एक साटक कहा गया है । " चाहे आचारांग के अनुसार
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