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________________ [ ३४ ] राजपिण्ड-पार्श्व की परंपरा के श्रमण राजा के यहां का अथवा सजा के लिए बना हुआ भोजन ग्रहण कर लेते थे, जबकि महावीर ने अपने श्रमणों के लिए राजपिण्ड का ग्रहण करना निषिद्ध कर दिया। मासकल्प-पार्श्व की परंपरा के श्रमणों के लिए यह नियम नहीं था कि वे चातुर्मास के अतिरिक्त किसी एक स्थान पर एक मास से अधिक न ठहरें अर्थात् वे अपनी इच्छा के अनुरूप किसी स्थान पर एक मास से अधिक ठहर सकते थे, जबकि महावीर ने अपने श्रमणों के लिए चातुर्मास के पश्चात् किसी स्थान पर एक मास से अधिक ठहरना निषिद्ध कर दिया था। पर्युषण-पर्युषण का अर्थ वर्षाकाल में एक स्थान पर रहना है। पार्व की परंपरा में श्रमणों के लिए वर्षाकाल में एक स्थान पर रहना भी आवश्यक नहीं था । वे इस बात के लिए बाध्य नहीं थे कि वर्षाकाल में चार मास तक एक ही स्थान पर रहें । जबकि महावीर ने अपने श्रमणों को आषाढ़ पूर्णिमा से कार्तिक पूर्णिमा तक एक ही स्थान पर रहने के स्पष्ट निर्देश दिये थे। पार्श्व और महावीर की परम्परा के उपर्युक्त सामान्य अन्तरों के अतिरिक्त मुनियों के आचार सम्बन्धी नियमों को लेकर ही और भी अनेक अन्तर देखे जाते हैं। भगवतीसूत्र के अनुसार कालस्यवैशिकपुत्र नामक पाश्र्वापत्य अनगार ने महावीर के संघ में प्रविष्ट हो निम्न विशेष साधना की थी। उन्होंने पंच महाव्रत और सप्रतिक्रमण धर्म को स्वीकार करने के साथ-साथ नग्नता, मुण्डितता, अस्नान, अदन्तधावन, छत्ररहित होना, उपानह (जूते) रहित होना, भूमिशयन, फलकशयन, काष्ठशयन, केशलोच, ब्रह्मचर्य परगृहप्रवेश अर्थात् भिक्षार्थ लोगों के घरों में जाना, को भी स्वीकार किया था। साथ ही लब्ध-अलब्ध, ऊँच-नीच, ग्राम कण्टक एवं बाइस परीषहों को भी सहन किया था. तए णं से कालासवेसियपुत्ते अणगारे थेरे भगवंते वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता चाउज्जामाओ धम्माओ पंचमहव्वइयं सपडिक्कमणं धम्म उवसंपज्जिता णं विहरति । ____ तए णं से कालासवेसियपुत्ते अणगारे बहूणि वासाणि सामण्णपरियागं पाउणइ, पाउणित्ता जस्सट्ठाए कीरइ नग्गभावे मुडभावे अण्हाणयं अदंतवणयं अच्छत्तयं अणोवाहणयं भूमिसेज्जा फलसेज्जा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002104
Book TitleArhat Parshva aur Unki Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1988
Total Pages86
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Mythology, & Literature
File Size4 MB
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