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सभी विचारक यह मानते हैं कि परिग्रह के त्याग में ही ब्रह्मचर्य निहित था । क्योंकि बिना ग्रहण किये स्त्री का भोग संभव नहीं था । यद्यपि इस कथन में कुछ सत्यता है, क्योंकि प्राचीन काल में स्त्री को सम्पत्ति माना जाता था और सम्पत्ति के त्याग में स्त्री का त्याग भी हो जाता था । अतः पार्श्व ने स्वतन्त्र रूप से ब्रह्मचर्यव्रत की व्यवस्था करना आवश्यक नहीं समझी, किन्तु सूत्र - कृतांग में उपलब्ध सूचना से ज्ञात होता है कि कुछ पाश्र्वापत्य परिग्रह के अन्तर्गत स्त्री के त्याग का एक गलत अर्थ लगाने लगे थे । वे यह मानने लगे थे कि यद्यपि स्त्री को रखने का निषेध किया गया है किन्तु उसके भोग का निषेध नहीं किया गया है । अतः कुछ पार्खापत्य श्रमण ( पासत्य) यहाँ तक मानने लगे थे कि यदि कोई स्त्री स्वेच्छा से अपनी कामवासना की पूर्ति के लिये श्रमण से निवेदन करती है तो उसकी वासना पूर्ति कर देने में ठीक उसी प्रकार कोई दोष नहीं है, जिस प्रकार किसी के पके हुए फोड़े को चीरकर उसका मवाद निकाल देने में कोई दोष नहीं है यद्यपि यहां 'पासत्थ' का अर्थ पार्श्व के अनुयायी न होकर पाश में स्थित अर्थात् शिथिलाचारी भी हो सकता है । फिर भी महावीर को ब्रह्मचर्य का स्वतन्त्र रूप में 'विधान करने के पीछे ऐसे ही कारण रहे होंगे । सूत्रकृतांग में महावीर की स्तुति के प्रसंग में 'से वारिया इत्थि सराइभत्तं' का उल्लेख हुआ है । इसका तात्पर्य यह है कि महावीर ने स्त्री और रात्रि भोजन का वारण किया अर्थात् त्याग किया । किन्तु इसका एक अर्थ यह भी हो सकता है कि उन्होंने स्त्री और रात्रि भोजन से लोगों को विरत किया, और यदि हम इसका यह अर्थ लेते हैं तो ऐसा लगता है कि महावीर ने स्पष्ट रूप से स्त्री के भोग का निषेध किया था, जो पूर्व परंपरा में स्पष्ट रूप से निषेधित नहीं था ।
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रात्रि भोजन का निषेध - यह भी माना जाता है कि महावीर ने रात्रि भोजन कां पृथकूरूप से निषेध किया । दशवैकालिक में रात्रि - भोजन को भी पंच महाव्रतों के समान ही महत्व देकर एक छठे व्रत के रूप में स्थापित किया गया है ।" पार्श्व की परंपरा में रात्रि भोजन प्रचलित था या नहीं इस संबंध में हमें कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है । अत: मात्र हम यही कह सकते हैं कि महावीर ने रात्रि
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