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[ ३० ] की परम्परा से संबंधित है।89 जैन धर्म की श्वेताम्बर परम्परा में जो वस्त्रपात्र का विकास हुआ है वह मूलतः पावपित्य श्रमणों के महावीर के संघ में मिलने के कारण ही हुआ होगा।
यह स्पष्ट है कि महावीर की पूर्ववर्ती परम्पराओं में जहाँ पार्श्व की निर्ग्रन्थ परंपरा एक वस्त्र या दो वस्त्रों का विधान करती है वहाँ आजीवकों की परंपरा, जिसमें महावीर के समकालीन मंखलिपुत्र गोशाल थे, अचेलता ( नग्नता ) का प्रतिपादन कर रही थी। मुझे ऐसा लगता है कि महावीर ने सर्वप्रथम तो पार्श्वनाथ की परम्परा के अनुसार एक वस्त्र लेकर दीक्षा ग्रहण की होगी, जिसकी पुष्टि आचारांग प्रथम श्रुतस्कन्ध से होती है, किन्तु एक ओर पाश्र्वापत्यों की आचार संबंधी 'शिथिलताओं या सुविधावाद को तथा दूसरी ओर आजीवक श्रमणों की कठोर तप साधना को देखकर वस्त्र त्यागकर आगे उन्होंने अचेल परम्परा का प्रतिपादन किया। फिर भी पाश्र्वापत्य परम्परा के साथ उनका वंशानुगत सम्बन्ध तो था ही, अतः वे पाश्र्वापत्य परम्परा से अधिक दूर नहीं रह सके । अनेक पापित्यों का उनकी परम्परा में सम्मिलित होना यही सूचित करता है कि महावीर और पार्श्व की परम्परा में प्रारम्भ में जो कुछ दूरी निर्मित हो गयी थी वह बाद में पुनः समाप्त हो गयी और संभव है कि महावीर ने कठोर आचार का समर्थन करते हुए भी अचेलता के प्रति अधिक आग्रह नहीं रखा हो। आचारांग प्रथम श्रुतस्कन्ध में ही एक, दो और तीन वस्त्रों की अनुमति सचेल परम्परा के प्रति उनकी उदारता का सबसे बड़ा प्रमाण है।1
चातुर्याम और पंचमहावत का विवाद-महावीर और पार्श्व की परम्परा का दूसरा महत्त्वपूर्ण अन्तर चातुर्याम धर्म और पंचमहाव्रत धर्म का है। ऋषिभाषित, उत्तराध्ययन, समवायांग और परवर्ती नियुक्ति, भाष्य और चूणि आदि में पार्श्व को चातुर्याम धर्म का प्रतिपादक कहा गया है। जबकि महावीर को पंचमहाव्रतों का प्रतिपादक कहा है-समवायांग में पार्श्व के निम्न चातुर्यामों का उल्लेख-सर्वप्राणातिपात विरमण, सर्वमृषावादविरमण, सर्वअदत्तादान विरमण और सर्वबहिर्धादान विरमण। सभी टीकाकारों ने बहिर्धादान का तात्पर्य परिग्रह के त्याग से लिया है। इस विवरण से यह फलित होता है कि पाश्वं की परंपरा में ब्रह्मचर्य का स्वतन्य स्थान नहीं था, यद्यपि
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