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________________ [ ८ ] इस प्रश्न का दूसरा सामान्य उत्तर यह भी हो सकता है कि चूंकि महावीर स्वयं पार्श्व को पुरुषादानीय, पुरुषश्रेष्ठ कहकर विशेष प्रतिष्ठा देते थे । अतः उनका उपासक वर्ग भी उनकी अपेक्षा पावनाथ को अधिक प्रतिष्ठा देता है । आचार्य हस्तीमल जी ने अपने ग्रन्थ जैनधर्म का मौलिक इतिहास भाग १, जो वस्तुतः इतिहास ग्रन्थ की अपेक्षा स्थानकवासी परम्परा की दृष्टि से लिखा गया पुराण ही है, में पार्श्व की विशेष प्रतिष्ठा का कारण यह बताया है कि आज देव मण्डल में अनेक देव और देवियाँ पार्श्व के शासन में देव योनि को प्राप्त हुए हैं, अतः उनके शासन की प्रभावना अधिक होने से वे अधिक पूज्य हैं। कुछ लोगों का यह भी कहना है कि पार्श्व के यक्ष और यक्षी-धरणेन्द्र और पद्मावती पार्श्व के उपासकों पर शीघ्र कृपा करते हैं और उनकी मनोवांछित कामनाओं को पूरा करते हैं अत: जैन संव में पार्श्व की प्रतिष्ठा अधिक है यद्यपि सिद्धान्ततः ये उत्तर अपनी जगह ठीक भी हों, किन्तु मेरी दृष्टि में जैनसंघ में पार्श्वनाथ की विशेष प्रतिष्ठा के पीछे मूलभूत कारण कुछ दूसरा ही है और वह मुख्यतः व्यावहारिक है। जैन परम्परा में पार्श्व को विघ्नों का उपशमन करने वाला माना गया है। पार्श्वनाथ को वही स्थान प्राप्त है जो कि आज हिन्दू परम्परा के देवों में विनायक या गणेश को है। हिन्दू परम्परा में गणेश को विघ्ननाशक देवता के रूप में स्वीकार किया जाता है और हम देखते हैं कि हिन्दू परम्परा के प्रत्येक धार्मिक अनुष्ठान में सर्वप्रथम विनायक का आह्वान और स्थापना की जाती है ताकि वह अनुष्ठान निर्विघ्न रूप से सम्पन्न हो। च कि जैन परंपरा में भी पार्श्वनाथ को विघ्न-शामक तीर्थंकर के रूप में स्वीकार किया गया है और इसलिए उनकी विशेष प्रतिष्ठा है। यदि हम जैन स्तोत्र साहित्य और भक्ति साहित्य को देखें तो भी यह स्पष्ट रूप से ज्ञात हो जाता है कि जितने स्तोत्र पार्श्व के लिए निर्मित हुए उतने अन्य किसी भी तीर्थंकर के लिए नहीं। साथ ही हम यह भी देखते हैं कि पार्श्व सम्बन्धी लगभग सभी स्तोत्रों या स्ततियों में कहीं न कहीं उनसे विघ्न के उपशमन की अथवा लौकिक मंगल और कल्याण की अपेक्षा की गयी है । यद्यपि जैन धर्म सिद्धान्ततः अध्यात्म और तप-त्याग की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002104
Book TitleArhat Parshva aur Unki Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1988
Total Pages86
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Mythology, & Literature
File Size4 MB
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