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________________ ४८ सुवर्णभूमि में कालकाचार्य श्रोसरति भएणं। ताहे तेणं कुम्भकारेणं भन्नति-- सुकुमालग! भद्दलया! रत्तिं हिंडणसीलया! । भयं ते नत्थि मंमूला, दीहपट्ठायो ते भयं ॥ ११५६ ॥ सो वि णेण सिलोगो गहिो। ताहे सो राया तं पियरं मारेउकामो रहं मग्गइ । 'पगासे उड्डाहो होहि 'त्ति काउं अमच्चेण समं रत्तिं फरुससालं अल्लीणो अच्छति । तत्थ तेण साहुणा पढिो पढमो सिलोगो "अाधावती पधावसी".........॥ (गा० ११५७).०६ रन्ना नायं-वेतिया मो, धुवं अतिसेसी एस साधू । तत्रो बितियो पढियो-" इअो गता इअो गता............॥” (गा० ११५८) तं पि णेणं परिगयं, जहानातयं (v. 1. नायं) एतेण । तो ततिग्रो पढियो-" सुकुमालग ! भद्दलया............॥” (गा० ११५६) ताहे जाणति–एस अमच्चो ममं चेव मारेउकामो, कत्रो ममं राता (राया) होऊ संते भोए परिच्चइत्ता पुणो ते चेत्र पत्थेति ?, एस अमच्चो मं मारेउकामो एवं जत्तं करेइ। ताहे राया अमच्चस्स सीसं छेत्तं साहुस्स उवगंतुं सव्वं कहेइ खामेइ य॥ अथ श्लोकत्रयस्याक्षरार्थः-श्रा-ईषद् अाभिमुख्येन वा धावसि प्राधावसि, प्रकर्षण पृष्ठतो वा धावसि मामपि च निरीक्षसे. लक्षितस्ते मया 'भावः अभिप्रायो यथा 'यवं' यवधान्यं चरितं प्रार्थयसि भो गईभ। द्वितीयपक्षे यवनामानं राजानं मारयितुं भो गर्दभनृपते। प्रार्थयसीति प्रथमश्लोकः ।। ११५७ ॥ ___ इतो गता इतो गता, मृग्यमाणा न दृश्यते, अहमेतद् विजानामि 'अगडे' भूमिगृहे गर्तायां वा क्षिप्ता 'अडोलिका' उन्दोयिका नृपतिदुहिता वा। द्वितीयश्लोकः ।। ११५४ ।। मूषकस्य राज्ञश्च शरीरसौकुमार्यभावात् सुकुमारक! इत्यामन्त्रणम्, 'भद्दलग 'त्ति भद्राकृते! रात्रौ हिण्डनशील ! मूषकस्य दिवा मानुषावशोकनचकिततया राज्ञस्तु वीरचर्यया रात्रौ पर्यटनशीलत्वात्, भयं 'ते' तव नास्ति 'मन्मूलात् ' मन्निमित्तात् किन्तु 'दीर्घपृष्ठात् ' एकत्र सर्पात् अन्यत्र तु अमात्यात् 'ते' तव भयमिति तृतीयश्लोकः ॥ ११५६ ॥ —बृहकल्पसूत्र, विभाग, २, प्रथम उद्देश, सूत्र १, भाष्यगाथा ११५७-६१, पृ० ३५६-३६१. उपर्युक्त अवतरण की ओर विशेष ध्यान देना जरूरी है। सारी कथा ऐतिहासिक न हो किन्तु गर्दभ लगता है जिसका कालककथा से सम्बन्ध है। यहाँ भी उसका कामी स्वभाव प्रकटित है। अडोलिया नाम परदेशी (शायद किसी ग्रीक-यावनी) नाम का रूपान्तर लगता है। डा. शान्तिलाल शाह ने अपने ग्रन्थ में अनुमान किया है कि अनिलसुत वह Antialkidas है और गर्दभ वह Khardaa' ० ७ है, यह हमें ठीक नहीं लगता, क्योंकि Antialkidas का अनिलसुत होना अशक्य है। और अनिल का सुत ऐसा अर्थ लें तब भी वह Antialkidas नहीं हो सकता और Khardaa (मथुरा के सिंह-ध्वज के लेख में उद्दिष्ट) इस Antialkidas का लड़का नहीं हो सकता। श्री० शान्तिलाल शाह का यह अनुमान कि “अणिलसुतो जवो णाम राया" कि जगह “अणिलसुतो णाम यवनो राया" होना चाहिये उससे भी पूरा संतोष नहीं होता क्योंकि उसका लड़का Khardaa नहीं है। फिर भी गर्दभ कौन ? इस विषय के संशोधन में सम्भव है यह अवतरण मदतरूप हो भी जाय ! कालक के जीवन की घटनाओं के विषय में चूर्णियों के, कथानकों के अन्य अवतरण हम यहाँ नहीं देते क्योंकि वे सभी नवाब और डा० ब्राउन ने सङ्ग्रहीत किये हुए हैं। १०६. गाथायें ११५७, ११५८, ११५६ उपर दी गई हैं इस लिए हमने यहाँ पूरी अवतारित नहीं की हैं। १०७. शान्तिलाल शाह, ध ट्रॅडिशनल क्रॉनोलॉजि ऑफ ध जैनझ पृ० ६१, ६८. मथुरा के सिंह-ध्वज Khardaa के उल्लेख के लिए देखो एपिग्राफिया इन्डिका वॉ० ६, पृ० १४०, १४७. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002101
Book TitleSuvarnabhumi me Kalakacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmakant P Shah
PublisherJain Sanskruti Sanshodhan Mandal Banaras
Publication Year1956
Total Pages54
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size4 MB
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