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सुवर्णभूमि में कालकाचार्य दूसरे कालक का समय-गईभिल्लोच्छेदक कालकाचार्य का समय-निर्वाण सं० ४५३ है, और इन दूसरे कालक की हस्ति को मुनिश्री ठीक मानते हैं। आगे आप लिखते हैं-" तीसरे कालकाचार्य के सम्बन्ध में हम निश्चित अभिप्राय नहीं व्यक्त कर सकते। कारण, निर्वाण सं० ७२० में कालकाचार्य के अस्तित्व-साधक इस गाथा के अतिरिक्त दूसरा कोई प्रमाण नहीं है। दूसरा कारण यह भी है कि गाथा में इन कालकाचार्य को 'शक्रसंस्तुत ' कहै हैं, जो सर्वथा असङ्गत है, क्यों कि शक्रसंस्तुत कालकाचार्य तो वही थे, जो 'निगोद-व्याख्याता' के नाम से प्रसिद्ध थे। युगप्रधान स्थविरावली के लेखानुसार यह विशेषण प्रथम कालकाचार्य को ही प्राप्त था।
___ "चौथे कालकाचार्य को चतुर्थी-पर्युषणा-कर्ता लिखते हैं, जो ठीक नहीं। यद्यपि 'वाल भी युगप्रधान पट्टावली' के लेखानुसार इस समय में भी एक कालकाचार्य हुए अवश्य हैं-जो निर्वाण सं० ६८१ से ६६३ तक युगप्रधान थे, पर इनसे चतुर्थी पyषणा होने का उल्लेख सर्वथा असङ्गत है।" ९७
इस चतुर्थ कालक के विषय में मुनिजी आगे लिखते हैं—“वर्धमान से ६६३ वर्ष व्यतीत होने पर कालकसूरिद्वारा पर्दूषणा चतुर्थी की स्थापना हुई ऐसी एक प्राकरणिक गाथा है जो तित्थोगाली पइन्नय से ली गई है ऐसा संदेहविषौषधि ग्रन्थ के कर्ता का उल्लेख है। मगर वह ठीक नहीं; और उपाध्याय धर्मसागरजी ने अपनी कल्पकिरणावली में भी बताया है कि यद्यपि यह गाथा धर्मघोषसूरिरचित कालसप्तति में देखने में आती है तथापि तीर्थोद्गार प्रकीर्णक में यह गाथा देखने में नहीं पाती ८." आगे मुनिश्री ने बताया है कि बारहवीं सदी में चतुर्थी की फिर पञ्चमी करने की प्रथा हुई तब चतुर्थी पर्युषणा को अर्वाचीन ठहराने के खयाल से किसीने यह गाथा रची। ९९
इन सब बातों से यह स्पष्ट होना चाहिये कि एक से ज्यादा कालक की परम्परायें शङ्कारहित हैं ही नहीं। एक नाम के अनेक प्राचार्य हुए इससे, और ज्यों ज्यों घटनाओं की हकीकत प्रथम कालक के साथ जोड़ने में शङ्का हुई त्यों त्यों या ज्यों ज्यों विक्रम और शक और तत्कालीन नृपविषयक ऐतिहासिक हकीकत विस्मृत होने लगी और परम्परायें विच्छिन्न होती गई, त्यों त्यों ये मध्यकालीन ग्रन्थकार व्यामोह में पड़ते गये और घटनाओं को भिन्न भिन्न कालक के साथ जोड़ते गये। तिथि के निर्णय में या श्रुत का पुनःसंग्रह करने में जिन्हों ने बार बार कुछ हिस्सा लिया उनको कालकाचार्य का बिरुद मिला हो ऐसा भी हो सकता है। ये बातें विशेष अनुसन्धान के योग्य हैं।
मुनिजी ने एक और गाथा की समीक्षा है जिसका भी उल्लेख करना चाहिये। आप लिखते हैं
"उपर्युक्त गाथाओं के अतिरिक्त कालकाचार्य विषयक एक और गाथा मेरुतुङ्ग की 'विचार-श्रेणि' के परिशिष्ट में लिखी मिलती है, जिसमें निर्वाण सम्बत् ३२० में कालकाचार्य का होना लिखा है। उस गाथा १०० का अर्थ इस प्रकार है-“वीर जिनेन्द्र के ३२० वर्ष बाद कालकाचार्य हुए, जिन्होंने इन्द्र को प्रतिबोध दिया।" इस गाथा से कालकाचार्य के अस्तित्व की सम्भावना की जा सकती है पर ऐसा करने की
१७. मुनिश्री कल्याणविजय, आर्य कालक, द्विवेदी अभिनन्दन ग्रन्थ, पृ० ६६-६७. ६८. द्विवेदी अभिनन्दन ग्रन्थ, पृ० ११८-११६. ६६. वीरनिर्वाण सम्वत् और जैन कालगणना, पृ० ५६-५८ की पादनोंध. १००. गाथा इस तरह है -
सिरिवीरजिणिंदाओ, वरिससया तिन्नि वीस (३२०) अहियाओ ।
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