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सुवर्णभूमि में कालकाचार्य भी प्राचीन है। ५४ उपर्युक्त घटना से यह भी जाना जाता है कि सागर के दादा-गुरु दूसरे आर्य कालक के साथ इस घटना का सम्बन्ध है। परन्तु हम पहले ही कह चुके हैं कि युगप्रधान-स्थविरावली में "श्यामार्य" नामक प्रथम कालक को निगोद व्याख्याता कहा है। ऐसी दशा में निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता कि निगोदव्याख्याता कालकाचार्य पहिले थे या दूसरे।" ५५
मुनिजी के उक्त विधान में वास्तव में आखरी वाक्य की जरूरत ही नहीं, क्यों कि निगोदव्याख्यान का सम्बन्ध श्यामार्य से हो सकता है अथवा आर्य रक्षित से। हमें यह भी याद रखना चाहिये कि इस घटना में इन्द्र अपना शेष आयुष्य पूछता है जो वास्तव में ज्योतिष और निमित्तशास्त्र का विषय है। सुवर्णभूमि जानेवाले और अनुयोग निर्माता आर्य कालक एक ही थे और वे निमित्तज्ञानी थे यह तो हम देख चुके हैं और घटना ३ से घटना ७ वाले कालक एक ही हैं वह तो मुनिजी को भी मंजूर है। अब अगर हम सिद्ध कर सकें कि अनुयोग निर्माता आर्य कालक वह श्यामार्य ही हो सकते हैं तब घटना ३ से घटना ७ वाले कालक को भी श्यामार्य मानना पड़ेगा। और उत्तराध्ययननियुक्ति-गाथा-(जो प्राचीन होने से ज्यादा विश्वसनीय होनी चाहिये) भी सच्ची सिद्ध होगी।
हम कह चुके हैं कि आर्य रक्षित ने अनुयोग-पृथक्त्व किया और अनुयोग के चार भाग किये। आर्य रक्षित का समय है आर्य वज्र के बाद का, मतलब कि नि० सं० ५८४ से ५९७ अासपास,५६ ई० स० ५७ से ७० अासपास। आर्य कालक ने लोकानुयोग, गण्डिकानुयोग, प्रथमानुयोग आदि का निर्माण किया जैसा कि पञ्चकल्पभाष्य में कहा गया है। इस के बाद ही अनुयोग पृथक्त्व हो सकता है। कालक के अनुयोग के
आर्य रक्षित के अनुयोग पृथक् व से पूर्ववर्ती होने का एक और प्रमाण भी मिलता है। इस विषय में मुनि श्री कल्याणविजयजी ने लिखा है कि-"नन्दीसूत्र में मूलप्रथमानुयोग और गण्डिकानुयोग का उल्लेख मिलता है। वहाँ प्रथमानुयोग के साथ लगा हुआ 'मूल' शब्द नन्दी के रचनाकाल में दो प्रथमानुयोगों के अस्तित्व की गूढ सूचना देता है। यद्यपि टीकाकार इस 'मूल' शब्द का प्रयोग तीर्थङ्करों के अर्थ में बताते हैं, तथापि वस्तुस्थिति कुछ और ही मालूम होती है।५७ अावश्यक-नियुक्ति प्रादि जैन सिद्धान्त-ग्रन्थों में यह बात स्पष्ट लिखी मिलती है कि आर्य रक्षित सूरिजी ने अनुयोग को चार विभागों में बाँट दिया था ५८ ____५४. वास्तव में इस घटना का आर्य रक्षित से सम्बन्ध तब जोड़ा गया जब कालक के अनुयोग का स्थान आर्य रक्षित के अनुयोग-पृथक्त्व ने लिया । अत: उत्तराध्ययन-नियुक्ति-गाथा में शङ्का रखने की आवश्यकता नहीं।
५५. द्विवेदी अभिनन्दन ग्रन्थ, पृ० ११४ । ५६. देखिये, पहावली समुच्चय, सिरि दुसमाकाल-समणसंघ-थयं, पृ० ११-१८. ५७. नन्दीसूत्र का यह उल्लेख ऐसा है :
से किं तं अणुओगे ? अणुओगे दुविहे पण्णत्ते ।
तं जहा–मूलपढमाणुओगे, गंडियाणुओगे य ।। से किं तं मूलपढमाणुओगे ? मूलपढमाणुओगे णं अरहंताणं भगवंताणं पुश्वभवा देवगमणाई आउं चवणाई जम्मणाणि अभिसेा रायवरसिरीओ पव्वज्जाओ......एवमाइभावा मूलपढमाणुओगे कहिआ, से तं मूलपढमाणुओगे, से किं तं गंडिआणुओगे ? २ कुलगरगंडिआओ तिथत्यरगंडिआओ चक्कवट्टिगंडिआओ दसारगंडिआओ बलदेवगंडिआओ, वासुदेवगंडिआओ गणधरगडिआओ भद्दबाहुगंडिआओ तोकम्मगड़िआओ...से तं गंडिआणुओगे, से तं अणुओगे। -नन्दीसूत्र (आगमोदय-समिति, सूरत ) सू, ५६, प. २३७-२३८ और पृ० २४१ पर की टीका. ५८. यह गाथा ऐसी है—देविंदवंदिएहि महाणुभागेहि रकिखअज्जेहिं ।
जुगमासज्ज विभत्तो अणुओगो तो कओ चउहा ॥
-आवश्यक हारिभद्रीयवृत्ति, पृ० २६६, नियुक्ति गाथा, ११४.
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