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________________ सुवर्णभूमि में कालकाचार्य ८. कहावली -- घटना नं. ५ ―― गर्छभोच्छेद; घटना नं. ६ - चतुर्थीकरण; घटना नं. ७ श्रविनीत शिष्यपरिहार, सुवर्णभूमिगमन; घटना नं. १ - कालक और दत्तराजा. ३२ अत्र जब पञ्चकल्पभाष्य के अनुसार नं. ३ र ४ वाले कालक एक हैं, उत्तराध्ययन निर्युक्ति के अनुसार नं. ७ और नं. २ वाले एक हैं, और जब नं. ७ वाली घटना का नं. ३ और नं. ४ के अनुयोगग्रन्थों से सम्बन्ध है तत्र नं. ३, ४, ७, और २ – ये सब घटनाएँ एककालकपरक होती हैं । निशीथचूर्णि अनुसार नं. ५ और नं. ६ वाले आार्यकालक एक हैं । और बृहत्कल्पभाष्य के अनुसार नं. ५ और नं. ७ वाले एक हैं, अतः नं. ५, ६ और नं. ७ वाले कालक तो एक हैं ही। उत्तराध्ययननियुक्ति और चूर्ण के मत से नं. ७ और नं. २ वाले एक हैं। अतः नं. ५, ६, ७, २ वाले एक ही कालक हैं। फिर नं. ३ र ४ वाले नं. ७ वाले कालक हैं वह तो स्पष्ट है । " मुनिश्री कल्याणविजयजी को यह मंजूर है । और कहावली के अनुसार, नं. ५, नं. ६, नं. ७ और नं. १ वाले कालक एक हैं। अतः इस विभाग के ग्रन्थों के सभीक्षण से इन ग्रन्थकारों के खयाल में घटनाओं नं. १ से घटना नं. ७ वाली सब घटना वाले कालकाचार्य एक ही होंगे। वह कालक कत्र हुए ? मुनिश्री कल्याणविजयजी के मत से दो कालकाचार्य हुए --- पहले निर्वाण संवत् ३०० से ३७६ तक में, इन का जन्म नि. सं. २८० में, दीक्षा नि. सं. ३०० में, युगप्रधानपद नि. सं. ३३५ में और स्वर्गवास नि. सं. ३१६ में। उनके जीवन की दो घटनाएँ घटना नं. १ - यज्ञफलकथन, और घटना नं. २ - निगोदव्याख्यान | ५ २ मुनिजी के मत से, दूसरे कालक के जीवन में घटना ३ से ७ हुई। और वे घटनायें इस क्रमसे हुई :- : -- घटना ३ ( निमित्त पठन), वीर निर्वाण संवत् ४५३ से पहले; घटना ४ ( अनुयोग निर्माण ), नि. सं. ४५३ से पहले; घटना ५ ( गद्दे भिल्लोच्छेद), नि. सं. ४५३ में; घटना ६ ( चतुर्थी पर्यूषणा ), नि. सं. ४५१ • ४६५ के बीच में; घटना १ ( विनीत शिष्य- परिहार ), नि. सं. ४५१ के बाद और ४६५ के पहले५ ७ । 3 आप लिखते हैं'जहाँ तक हम जान सके हैं, उपर्युक्त सात घटनाओं के साथ दो ही व्यक्तियों का सम्बन्ध है - प्रज्ञापनाकर्ता श्यामार्य और सरस्वती भ्राता श्रार्य कालक । निगोद-पृच्छा सम्बन्धि घटना, जो कालक कथाओं में चौथी घटना कही गई है, हमारी समझ में श्रार्य रक्षित के चरित्र का अनुकरण है । परन्तु इस विषय में निश्चित मत देना दुस्साहस होगा क्यों कि 'उत्तराध्ययन-निर्युक्ति' में एक गाथा हमें उपलब्ध होती है, जिसका आशय यह है--" उज्जयिनी में कालक क्षमाश्रमण थे और सुवर्णभूमि में सागर श्रमण | ( कालक सुवर्णभूमि गये, और इन्द्र ने श्रा कर ) शेष आयुष्य के विषय में पूछा। ( तत्र कालक ने कहा ) इन्द्र हैं। Xxx इस वर्णन से यह तो मानना पड़ेगा कि कालक के पास इन्द्रागमन सम्बन्धि बात ५१. विनीतशिष्य - परिहार ( और सुवर्णभूमिगमन) वाली घटना और निमित्त पठन और अनुयोग. निर्माणवाली घटना को छानबीन कर के मुनिश्री लिखते हैं--" इन दोनों घटनाओं का आन्तरिक रहस्य एक ही है और वह यह कि कालक के शिष्य उनके काबू में न थे।" इस ख़याल को ले कर मुनिजी ने भी बताया है कि ये घटनायें एक ही कालक के जीवन की हैं। द्विवेदी अभिनंदन - ग्रन्थ, पृ० ११५. ५२. वही, पृ० ११६-११७. ५३. वही पृ० ११६-११७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002101
Book TitleSuvarnabhumi me Kalakacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmakant P Shah
PublisherJain Sanskruti Sanshodhan Mandal Banaras
Publication Year1956
Total Pages54
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size4 MB
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