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षटपदि और सांगत्ययुग
धार पंचाणुव्रतों का पालन करता है । भरत धर्म की मर्यादा के भीतर रहकर सांसारिक सुख-भोग करनेवाला एक राजर्षि है।
वस्तुतः भोग और त्याग में अविरोध प्रदर्शित कर, भोग और योग के मध्य समन्वय करना ही महाकवि रत्नाकर के काव्य का एकमात्र लक्ष्य है । कवि कुवेंदु के शब्दों में भरतेशवैभव में त्याग और भोग के समन्वयरूपी योग. दर्शन को रत्नाकर ने सुन्दर ढंग से प्रतिपादित किया है। उसने इस आदर्श को सिर्फ भरत के जीवन में ही नहीं अपितु समूचे काव्य में कुशलतापूर्वक व्यक्त किया है । इस प्रकार की काव्यसृष्टि संसार के किसी भी साहित्य के लिए गौरव की वस्तु है । इस दृष्टि से भरतेशवैभव एक महान् कृति है।
रत्नाकर का काग्य चर्वितचर्वण या पिष्टपेषण नहीं है। वह सांप्रदायिकता से भी बहुत दूर है। सामान्य जनता उसके काव्य से लाभ उठावे, यही कवि का प्रमुख लक्ष्य था। रत्नाकर की शैली सरस और सरल है। कवि के वर्णन में स्वाभाविकता है। कवि ने जो कुछ लिखा है वह आत्मानुभव के आधार पर लिखा है। रत्नाकर कन्नह कवि रूप माला की एक देदीप्यमान मणि है। इनके काव्यों के कई संस्करण निकल चुके हैं। विजयण्ण
विजयण्ण मूडबिद्री के निवासी थे। इन्होंने द्वादशानुप्रेक्षा की रचना की है। यह कृति सांगत्य छन्द में है, बीच-बीच में कहीं कंद वृत्त भी हैं। ग्रंथ में जैन धर्म में प्रतिपादित बारह भावनाओं का वर्णन है। साहित्य की दृष्टि से यह रचना बहुत महत्त्वपूर्ण नहीं है। कवि का निरूपण सरल, सुगम एवं हृदय ग्राही है। विजयण्ण का समय लगभग ई० सन् १४५० है। कवि का आश्रयदाता देवकवि है। उसी की प्रेरणा से प्रस्तुत ग्रंथ रचा गया है । द्वादशानुप्रेक्षा को कन्नड में लाने का श्रेय विजयण्ण को ही है। यह ग्रंथ पठनीय है । यह प्रकाशित भी हो गया है। शिशुमायण
होयसल देशांतर्गत कावेरी नदी के तट पर अवस्थित नयनापुर शिशु. मायण का जन्मस्थल था। कवि के पिता बोम्मिसेट्टि और माता नेमांबिका थीं। कवि के श्रद्धेय गुरु काणूर्गण के भानुमुनि थे। बेलुकेरे नगर के स्वामी गोम्मटदेव की प्रेरणा से कवि ने 'अंजनाचरिते' की रचना की थी। त्रिपुर. दहन नामक इनका एक अन्य ग्रन्थ भी है। शिशुमायण का समय ई. सन् १४७२ है। कवि के दोनों काव्य सांगत्य छन्द में निरूपित हैं। दोनों सरल
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