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________________ षट्पदि और सांगत्ययुग ८३ हजार पद्य परिमित अपने 'भरतेशवैभव' नामक महाकाव्य को केवल ९ माह में पूर्ण किया था। यद्यपि यह बात थोड़ी अतिशयोक्तिपूर्ण मालूम होती है । परन्तु महाकवि रत्नाकर के लिए यह असंभव नहीं है। देवचंद्र के कथनानुसार रत्नाकर ने भरतेशवैभव के अतिरिक्त अपराजितेश्वरशतक, त्रिलोकशतक एवं रत्नाकराधीश्वरशतक नामक शतकाम की तथा दो हजार अध्यात्मगीतों की रचना की है। कवि ने त्रिलोकशतक में अपना जन्मस्थल मुडबिद्री बताया है। इस शतक का रचनाकाल ई० सन् १४५७ है । सम्भवतः यह शतक कवि की प्रथम कृति है । इस प्रकार रत्नाकर ने १५वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में ही अपनी कृतियों की रचना की है। - रत्नाकर के प्रत्येक शतक में १२८ पद्य हैं। इन शतकों में लोकस्वरूप को बतलानेवाला त्रिलोकशतक कंद पद्य में है। शेष दो शतक वृत्त में निरूपित हैं। इनमें रत्नाकरशतक कवि की प्रत्युत्पन्नमति को प्रतिबिम्बित करनेवालो एक सर्वश्रेष्ट ग्रन्थ है। शेष शतकों की तरह नीति निरूपण करना ही इसका लक्ष्य है। फिर भी इसमें ओज तथा तेज है। रत्नाकर एक स्वतंत्रचेता कवि हैं। उनकी वाणी सटीक एवं मर्मस्पर्शी है यद्यपि कर्म प्रतिपादन एवं तत्त्वजिज्ञासा के सन्दर्भ में उनका दृष्टिकोण उदार है। जीवन की क्षणभंगुरता को स्वीकार करते हुए भी रत्नाकर भोग से विमुख होने की बात नहीं कहते; बल्कि वह कहते हैं कि भोग को भोगते हुए भी शाश्वत सुख प्राप्त किया जा सकता है। यही कवि के भरतेशवैभव महाकाव्य का सार है । भरतेशवैभव भरतचक्रवर्ती के चरित्र से सम्बन्धित एक महाकाव्य है। कथा बहुत पुरानी है। भरत प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के ज्येष्ठ पुत्र, सोलहवें मनु, प्रथम चक्री और चरमशरीरी हैं। अन्य सभी शलाकापुरुषों के जीवनचरित्र की तरह भरत के जीवनचरित्र का आधार भी आचार्य जिनसेन का आदिपुराण ही है। रत्नाकर ने जिनसेन द्वारा वणित भरत की कथा के मूलरूप को स्वीकार करते हुए भी उसके विवरण में पर्याप्त परिवर्तन किया है। प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव की कथा के एक अंग के रूप में वर्णित इस कथा के आधार पर एक स्वतन्त्र कृति की रचना करना रत्नाकर की विशेषता है । इससे पहले किसी भी कन्नड कवि ने ऐसी रचना नहीं की थी। रत्नाकर ने जो कुछ कथावस्तु उपलब्ध थी उसे अपनी नवीन कल्पनाओं से सँजोया है तथा अपने कथानायक के चरित्र को नवीन ऊंचाइयों तक पहुंचाया है। अपने Jain Education International For Private & Personal Use Only. www.jainelibrary.org
SR No.002100
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 7
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmbalal P Shah
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size11 MB
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