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कन्नड जैन साहित्य का इतिहास
के हितार्थ कन्नड में लिखा है। इस बात को कवि ने अपनी रचना में स्वयं स्वीकार किया है।
धर्मपरीक्षा चम्पू ग्रंथ हैं। इसमें दश आश्वास हैं। ग्रंथ की शैली सुगम एवं ललित है। कथा कहने का ढंग भी चित्ताकर्षक है। फिर भी कुछ समय के उपरांत वृत्तविलास की यह धर्मपरीक्षा नामवकृति सामान्य जनता को कठिन लगने लगी। इसलिये स्थानीय श्रावकों ने श्रवणबेळगोळ के तत्कालीन मठाधीश चारुकीति जी से इसकी कन्नड व्याख्या तैयार करने के लिए प्रार्थना की। इस कार्य के लिए चारुकीति जी ने चंद्रसागर जी को आज्ञा दी। तद्नुसार चंद्रसागरजी ने शा० २० १७७० में सुलभ कन्नड गद्य में धर्मपरीक्षा को रूपांतरित किया। चंद्रसागर जी की धर्मपरीक्षा में भी दश अध्याय हैं। इस प्रकार कन्नड में अभी तक धर्मपरीक्षा सम्बन्धी ये ही दो रचनाएं उपलब्ध हैं। प्राकृत, अपभ्रंश और संस्कृत भाषाओं में इसी विषय को निरूपित करनेवाले धर्मपरीक्षा नाम के कई प्रथ उपलब्ध होते हैं । उनमें निम्नलिखित ग्रंथ प्रमुख हैं
जयराम नामक कवि ने गाथाप्रबंध में एक 'धर्मपरीक्षा' की रचना की थी। वह प्रायः प्राकृत भाषा में रही होगी। किंतु इस धर्मपरीक्षा की कोई भी प्रति अभी तक उपलब्ध नहीं हुई है। इसी के आधार पर हरिषेण ने भी अपभ्रंश भाषा में धर्मपरीक्षा नामक ग्रंथ लिखा था। ये हरिषेण मेवाड़देशवासी गोवर्धन एवं उनकी धर्मपत्नी गुणवती के पुत्र थे। हरिषेण कार्यवश चित्रकूट से अचलपुर गये और वहां पर उन्होंने छंद, अलंकार आदि का अध्ययन कर वि० सं० १०४४ में अपभ्रंश धर्मपरीक्षा की रचना की। हरिषेण के गुरु सिद्धसेन थे और उन्हीं की कृपा से यह धर्मपरीक्षा लिखी गयी थी। इसमें संदेह नहीं है कि जयराम हरिषेण के पहले हुए हैं। इसी के बाद माधवसेन के शिष्य आचार्य अमितगति ने वि० सं० १०७० में संस्कृत धर्म. परीक्षा की रचना की। अमितगति की धर्मपरीक्षा हरिषेण की धर्मपरीक्षा से २६ वर्ष बाद की रचना है।
जयराम की धर्मपरीक्षा की कोई प्रति नहीं मिली है। हरिषेण की धर्मपरीक्षा भी अभी हस्तलिखित अवस्था में ही है। परंतु अमितगति की धर्मपरीक्षा मुद्रित हो चुकी है, मात्र यही नहीं, इसका सार हिंदी, मराठी आदि भाषाओं में भी प्रकाशित हो चुका है। अमितगति का अनुकरण करते हुए
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