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पंपयुग
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में हास्य, वीर और शृंगार के साथ-साथ अद्भुतरस का प्रयोग हुआ है। नेमिनाथ के गर्भावतरण तथा जन्माभिषेक आदि में भक्ति के साथ अद्भुतरस पाया जाता है। नवम आश्वास से लेकर द्वादश आश्वास तक कौरव और पाण्डवों के चरित्र में मात्सर्यादि भावों के साथ रौद्ररस की तथा बलदेव, वासुदेव, जरासंघ और कौरव एवं पाण्डवों के युद्ध प्रसंग में वीररस की प्रधानता है। द्वादश आश्वास के अन्त में वीर तथा रौद्ररस, त्रयोदश आश्वास के आदि में शृगाररस और अन्त में शुद्ध शान्तरस तथा चतुर्दश आश्वास के प्रारम्भ में शान्त, बलदेव के प्रलाप प्रसंग में करुण एवं अन्त में स्वच्छ शान्त रस का वर्णन प्राप्त होता है।
कर्णपार्य 'वाक्यं रसात्मकं काव्यं' इस पूर्व परम्परा के पक्के अनुयायी थे। इसीलिए कथाभाग तथा रस की ओर इनका जितना लक्ष्य था, उतना वर्णन और अलंकार की ओर नहीं था। इनके काव्य में वर्णन और अलंकार बहुत कम हैं । कवि के अधिकांश पद्यों में युत्यनुप्रास नामक शब्दालंकार ही दृष्टिगोचर होता है (आश्वास ६, पद्य ३४; आश्वास ७, पद्य १३१; आश्वास ८, पद्य १३०; आश्वास ११, पद्य ९९; आश्वास १२, पद्य ११८, १२७,
___ इस पुराण में उपमा, दृष्टान्त, रूपक, उत्प्रेक्षा, अर्थान्तरन्यास आदि अलंकारों के उदाहरण सीमित मात्रा में ही मिलते हैं। अलंकारों में कर्णपार्यको उपमालंकार अधिक प्रिय था। इसके लिए आश्वास १०, ११ और १२ विशेष उल्लेखनीय हैं।
कर्णपार्य की शैली में विशेषतः पांवाली तथा वैदर्भी रीति ही दृष्टिगोचर होती है, यद्यपि कहीं-कहीं वीर, बीभत्स और रौद्र रस के अनुकूल गौड़ी रीति भी मिलती है ( आश्वास १२, पद्य २७३ आदि )। स्वतन्त्र रचनाकार होते हुए भी कर्णपार्य ने प्राचीन संस्कृत एवं कन्नड कवियों के भावों को भी यथाबसर ग्रहण किया है। प्रतिपाद्य विषय को सुरुचिपूर्ण बनाने के लिए इन्होंने संस्कृत के व्यावहारिक वाक्यों एवं कहावतों को जोड़कर विषय को सुन्दर बनाया है । कवि कर्णपार्य ने प्राचीन व्याकरण के नियमों का पालन अवश्य किया है, फिर भी अनेक स्थानों पर इन्होंने कन्नड के नूतन रूपों को भी अपनाया है। - अन्यान्य जैन कवियों की तरह इन्होंने भी वैदिक पुराणों में वर्णित त्रिमूर्ति, समुद्रमन्थन, समुद्रमन्थन से लक्ष्मी की उत्पत्ति आदि वैदिक बातों को
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